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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
सर्वसिद्धान्त-समन्वय
मिथ्या कहने का भी अभिप्राय यही है कि “त्रिकालाऽबाध्य” परमार्थ सत्य भगवान की सत्यता के समान इसकी सत्यता नहीं है; किन्तु व्यवहार में आने वाली केवल व्यावहारिक सत्यता है, न कि गगन कुसुम के समान अत्यन्त असत्। मिथ्या शब्द का यहाँ अपह्नव अर्थ नहीं है, अपितु अनिर्वचनीयता अर्थ समझना चाहिये, जैसे अविद्या शब्द का विद्या-व्यतिरिक्त कर्म विवक्षित है। अधर्म से धर्मविरुद्ध पापादि विवक्षित है, न कि विद्या का अभाव या धर्म का अभाव। यद्यपि साधारणतया लोक में सत्यता एक ही प्रकार की प्रसिद्ध है तथापि अध्यात्म शास्त्रवेत्ता सूक्ष्म स्तर-भेद से सत्यता में महान भेद समझते हैं। उनकी दृष्टि में बिना (वस्तु) सत्ता के किसी वस्तु की अपरोक्ष प्रतीति असम्भव है। इसी वास्ते रज्जु-सर्प आदि की भी प्रतीति तत्काल उत्पन्न अनिर्वाच्य सर्प को विषय करने वाली होती है। क्योंकि अत्यन्त असत् खपुष्पादि के समान रज्जु-सर्प की अपरोक्ष प्रतीति तथा भय-कम्पादि की जनकता नहीं हो सकती, इस वास्ते उसे असत् खपुष्पादि से विलक्षण परन्तु रज्जुज्ञान से बाध्य होने वाला मानना चाहिये; अतः व्यावहारिक घटादि से भी विलक्षण प्रातिभासिक सत्य कहलाता है एवं आकाशादि, जो कि व्यहारकाल में कभी बाधित न होने से रज्जुसर्पादि से विलक्षण हैं तथा ब्रह्म साक्षात्कार होने से एकमात्र ब्रह्म ही रह जाता है, तद्व्यतिरिक्त का बाध हो जाता है, अतः त्रिकालाऽबाध्य परमार्थ सत्य से भी विलक्षण हैं। वे व्यावहारिक सत्य कहलाते हैं और जो सदा एकरस परम तत्त्व है वही परमार्थ सत्य कहलाता है। जैसे द्वैतवादियों के यहाँ घट की अनित्यता, आकाश की नित्यता, रूप-विलक्षणता सत्यता के बराबर होने पर भी समंजस्य है वैसे ही बाधित होने से मिथ्यात्व बराबर होते हुए भी व्यावहारिक समस्त प्रपंच की विनिवृत्ति के लिये व्यावहारिक साधनों की ही आवश्यकता है। शास्त्रों में स्वाभाविक कामकर्म लक्षण मृत्यु के अपनयनार्थ ही अविद्यापदवाच्य कर्मों का विधान भी है- “अविद्यया मृत्युं तीर्त्त्वा।” विशुद्धस्वान्ततत्त्वनिष्ठ के लिये “योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते” के अनुसार विधिपूर्वक सर्वकर्म-संन्यास शास्त्रानुसार ठीक ही है। अब रहा यह कि जीव परमेश्वर के भेद न मानने से ठीक भगवदुपासना नहीं हो सकती, इस वास्ते अद्वैतियों के साथ विरोध है, तो यह भी नहीं, क्योंकि यावत प्रारब्ध अविद्या लेश की अनुवृत्ति प्रारब्धरूप प्रतिबन्धक से अद्वैतवादी भी मानते हैं। अतः जब तक उपाधि का अस्तित्व है तब तक जीव-परमेश्वर का वास्तविक अभेद होते हुए भी व्यावहारिक भेद अनिवार्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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