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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
सर्वसिद्धान्त-समन्वय
वस्तुतः परमेश्वर के अराधन का परम उत्कृष्ट मार्ग स्वस्ववर्णाश्रम-धर्म ही है जैसा कि शास्त्रों में कहा है-
वर्णाश्रमानुसार वैदिक अग्नि होत्रादि कृत्यों में अग्नि, इन्द्र, वरुण, रुद्र, विष्णु आदि सभी देवताओं का यजन करना पड़ता है अतः कोई भी वैदिकत्वाभिमानी कैसे कह सकते हैं कि हम अनन्य वैष्णव या शैव हैं, अन्य देव का अर्चन हीं करेंगे। तस्मात् अनन्यता का अर्थ यह कदापि नहीं हो सकता कि देवता, ब्राह्मण, गुरु, माता, पिता आदि गुरुजनों की अर्चना-पूजा छोड़ देनी चाहिये किन्तु अनन्यता का अर्थ यही है कि देवपितृ-गुरुब्राह्मणादि सभी का आराधन-पूजन करो परन्तु वह सभी हो भगवदर्थ, जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है- “सब कर माँगे एक फल, राम-चरन-रति होहु।” इत्यादि। इसी प्रकार व्यवस्था भस्मादि के विषय में समझनी चाहिये। कारण कि रागतः प्राप्त पदार्थ की निन्दा निषेध के लिये होती है। जैसे सुरामांसादि रागतः प्राप्त है अतः उनकी निन्दाओं का तात्पर्य उनके निषेधों में हो सकता है। भस्म, त्रिपुण्ड्रादि राग से तो प्राप्त हैं नहीं; किन्तु किन्हीं शास्त्र वचनों से ही प्राप्त हैं। शास्त्र प्राप्त का अत्यन्त बाध शास्त्रान्तर से भी नही हो सकता; क्योंकि शास्त्रान्तर निरवकाश हो जायगा। षोडशीग्रहण “अतिरात्रे षोडशिनं गृह्णाति” इस शास्त्र से ही प्राप्त है। अतः “नातिरात्रे षोडशिनं गृह्णाति” इस साक्षात निषेध से भी अत्यन्तबाध नहीं होता; किन्तु विकल्प ग्रहणाऽग्रहण का ही माना गया है। ठीक इसी तरह शास्त्र प्राप्त भस्मत्रिपुण्ड्रादि का विकल्प या सम्प्रदाय-भेद से व्यवस्था है; अर्थात “शैवों” तथा “वैष्णवों” के लिये सम्प्रदायानुसार व्यवस्था एवं श्रौतस्मार्त्तकर्म-निरत कर्मठों को प्रातः सायं भस्म इतरकाल में यथाकाम। यही पद्धति देखने में भी आ रही है। लिखा भी है कि-
अहिताग्नि लोग किसी समय भस्मादि और किसी समय चन्दनादि लगाते हैं। इतरों के लिये यथाकाम ही समझना चाहिये। निषेध का विषय श्मशानादिगत भस्म है, न कि आहवनीयादिगत पवित्र भस्म। सामान्य वचनों का भी श्रुतियों से संकोच उचित ही है। अभिप्राय यह है कि अद्वैतवादियों का इन मतभेदों में आग्रह नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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