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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
सर्वसिद्धान्त-समन्वय
ठीक यही समस्त दूषणगण, त्रिपुण्ड्र, ऊर्ध्वपुण्ड्र, भस्म, गोपीचन्दन, रुद्राक्षादि विषयों में भी समझना चाहिये। अर्थात कहीं केवल भस्म, त्रिपुण्ड्र का माहात्म्य, तदितर की निन्दा, कहीं ऊर्ध्वपुण्ड्र की स्तुति, तदितर की निन्दा। यदि ऊर्ध्वपुण्ड्र की विधि उपनिषदों में पायी जाती है तो भस्म तथा रुद्राक्ष का माहात्म्य जाबालोपनिषदादि में पाया जाता है। यदि काठरायण, माठरायणादि अत्यन्त अप्रसिद्ध श्रुतियों का भी प्रामाण्य साम्प्रदायिक मानते हैं, तो मुक्तिकोपनिषत् प्रमाण तथा लोकप्रसिद्धि सिद्ध रुद्राक्ष, भस्म, जाबालादि उपनिषदों के प्रामार्ण्य में बाधा ही क्या हो सकती है? अस्तु, यह साम्प्रदायिक कलह, कलहप्रियों को ही शोभा देता है। दुराग्रही लोग लाख प्रयत्न से भी अपना दुराग्रह नहीं छोड़ सकते। अतः इस विवाद में हम पाठकों के समय का अपव्यय नहीं चाहते। परन्तु उक्त विषयों में समन्वय पद्धति के मर्मज्ञों की उक्त तथा वक्ष्यमाण व्यवस्था ध्यान से पढ़नी चाहिये। उनका कहना यह है कि पूर्वोक्त बिम्बादिदृष्टान्तानुसार एक ही परमतत्त्व का भावानुसार नामरूप वेशभूषा-भेद से उपासना तथा तत्तदनुरूप नियत उपकरण भिन्न-भिन्न उपनिषद् तथा पुराणों में बतलाये गये हैं और नियत रूपादि में निष्ठा परिपाक के लिये नियत रूप का ही माहात्म्य, तदितर की निन्दा प्रतिपादन की गयी हैं। जैसे वेदों में क्रम से उदित, अनुदित, समयाध्युषित होम का विधान भी पाया जाता है और वहाँ ही उक्त होमों की निन्दा भी पायी जाती है। परन्तु उक्त निन्दाओं का तात्पर्य निन्दा में न होकर किसी एक की दृढ़ता सम्पादन करने में ही है। अर्थात जिसने जिस पक्ष को स्वीकार किया उसको उसी में दृढ़ निष्ठा रखनी चाहिये। दूसरे पक्ष का अवलम्बन नहीं करना चाहिये। क्योंकि वैदिकों की ऐसी मर्यादा है कि निन्दा का तात्पर्य निन्दा में न होकर किसी विधेय की स्तुति में होता है। जैसे वेदों में एक जगह अविद्यापदवाच्य कर्मों के करने वालों को अन्धंतम की प्राप्ति कही है। विद्यापदवाच्य उपासना में निरतों को उससे भी घोर अदर्शनात्मक तम “अन्धं तमः प्रविशन्ति” की प्राप्ति कही है। परन्तु उक्त विद्या तथा अविद्या का शास्त्र में विधान पाया जाता है। शास्त्रविहित कृत्य की अकर्तव्यता “नाही शास्त्रविहितं किंचिदकर्तव्यतामियात्” इत्यादि भगवान शंकराचार्य की उक्ति के अनुसार हो नहीं सकती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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