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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
सर्वसिद्धान्त-समन्वय
वैदिक सिद्धान्तियों का भी जबकि अंशभेद में प्राधान्याप्राधान्य-भाव से वैमत्य ही नहीं प्रत्युत बाह्यों से भी अधिक पारस्परिक संघर्ष है, तब एक श्रृंखला सम्बन्धशून्य परस्पर स्वतन्त्र विचार पद्धति को समाश्रयण करने वालों में मतभेद तथा संघर्ष होना स्वाभाविक ही है। परन्तु इतना होने पर भी क्या सभी सिद्धान्त सर्वांश में नितान्त भ्रममूलक तथा अनिष्टप्रद हैं, अथवा सर्वांश में सभी प्रमामूलक एवं पुरुषार्थप्रद हैं, यह बात कोई भी बतलाने का साहस नहीं करता। यह सत्य है कि स्वसिद्धान्तातिरिक्त सभी प्रायः भ्रममूलक एवं परमपुरुषार्थ से च्युति के हेतु हैं। ऐसे स्वगोष्ठीसिद्ध सिद्धान्ताभिमानी आज भी कम नहीं है। एक वस्तु-विषयक प्रमाज्ञान एक ही होता है, नानाज्ञान अयथार्थ होते हैं। एक वस्तु विषयक अनेक प्रतिपत्तियाँ अवश्य ही प्राणियों को भ्रम में छोड़ती हैं। चार्वाकों का कहना है कि जब तक जीये सुखपूर्वक जीये। देह के भस्म हो जाने पर कुछ भी अवशिष्ट नहीं रहता। इनके मत में नीति और काम-शास्त्र के अनुसार अर्थ और काम ये दो ही पुरुषार्थ हैं। अन्य कोई पालौकिक धर्म या मोक्ष नाम का कोई पुरुषार्थ नहीं है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु ये चार ही भूत हैं। ये ही जब देह के आकार में परिणत होते हैं, तब उनसे चैतन्य शक्ति उसी तरह उत्पन्न हो जाती है, जैसे अन्न-कण आदि से मादक शक्ति उत्पन्न होती है, किंवा हरिद्रा और चूना से एक तीसरा लाल रंग पैदा हो जाता है। अत: देह के नाश से उस चैतन्य का नाश हो जाता है। इसलिये चैतन्य विशिष्ट देह ही आत्मा है। प्रत्यक्ष प्रमाण से अतिरिक्त अनुमान, आगम आदि प्रमाणों की इस मत में मान्यता नहीं है। इसीलिये देह से भिन्न आत्मा होने में कोई भी प्रमाण नहीं है। कामिनी-परिरम्भणजन्य सुख ही स्वर्ग है, कण्टकादि-व्यथाजन्य दुःख ही नरक है। लोकसिद्ध राजा ही परमेश्वर है, देह का नाश ही मुक्ति है। ‘मैं स्थूल हूँ, कृश हूँ’ इस अनुभव से स्पष्ट है कि देह ही आत्मा है। ‘मेरा देह है’ यह अनुभव ‘राहोः शिरः’ के समान औपचारिक है। इस पर बौद्धों का कहना है कि बिना अनुमान-प्रमाण को स्वीकार किये काम नहीं चल सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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