भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
व्रज-भूमि
सारस-पत्नी लक्ष्मणा केवल सम्प्रयोग-जन्य रस का ही अनुभव करती है और चक्रवाकी विप्रयोग-जन्य तीव्रताप के अनन्तर सहृदय-हृदय-वेद्य सम्प्रयोग-जन्य अनुपम रस का आस्वादन करती है, परन्तु वह भी विप्रयोग-काल में सम्प्रयोग-जन्य रसास्वादन से वंचित रहती है। किन्तु नित्य-निकुंज में श्रीनिकुंजेश्वरी को अपने प्रियतम परमप्रेमास्पद श्रीव्रजराज किशोर के साथ सारस-पत्नी लक्ष्मणा की अपेक्षा शतकोटि-गुणित दिव्य सम्प्रयोग-जन्य रस की अनुभूति होती है और साथ ही चक्रवाकी की अपेक्षा शतकोटि-गुणित अधिक विप्रयोग-जन्य तीव्रताप के अनुभव के अनंतर पुनः दिव्य रस की भी अनुभूति होती है। ऐसे ही विषय में भावुकों ने कहा है- “मिलेह रहैं मानों कबहुँ मिले ना।” जैसे भावुकों के भावना-राज्य वाले शून्य निकुंज में ही प्रियतम संकेतित समय में पधारते हैं, किसी अन्य के सान्निध्य में नहीं, वैसे ही वेदान्तियों के यहाँ भी भगवान से व्यतिरिक्त जो सब दृश्य पदार्थ हैं उनके संसर्ग से शून्य निर्वृत्तिक और निर्मल अन्तःकरण में ही ‘तत्पदार्थ’ का प्राकट्य’ का प्राकट्य होता है। जैसे सर्व-व्यापारों से रहित होकर पूर्ण प्रतीक्षा ही प्रियतम के संगम का असाधारण हेतु है, वैसे ही वेदान्तियों के यहाँ भी पूर्ण प्रतीक्षा अर्थात कायिकी, मानसी आदि सर्व चेष्टाओं के निरोध होने पर ही ‘त्वं पदार्थ’ को ‘तत्पदार्थ’ का संगम प्राप्त होता है। सर्व दृश्य-संसर्गशून्य निर्वृत्तिक निर्मल अन्तःकरण निकुंज में पूर्ण प्रतीक्षा-परायण व्रजांगना-भावापन्न ‘त्वं पदार्थ’ श्रीकृष्णस्वरूप ‘तत्पदार्थ’ के साथ यथेष्ट तादात्म्य सम्बन्ध प्राप्त करता है। यही संक्षेप में व्रजधाम तत्त्व तथा उसका रहस्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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