भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
व्रज-भूमि
इस श्रुति के अनुसार जैसे देह इन्द्रियों के, इन्द्रियाँ मन के और मन प्राणरूपा प्रज्ञा के परतन्त्र होता है, (यहाँ पर “यो वै प्राणः सा प्रज्ञा” इस श्रुति वाक्य के अनुसार क्रिया-शक्ति-प्रधान प्राण और ज्ञानशक्ति-प्रधान प्रज्ञा का ऐक्य विवक्षित है) एवं पूर्व का उत्तरोत्तर में ही सम्मिलन होने से तद्रूपता ही होती है, उसी तरह व्रज श्रीकृष्ण प्रेयसी व्रजांगनाओं से विभूषित तथा उन्हीं के अधीन है। व्रजवनिताजन का जीवन श्रीव्रजेन्द्र कुमार हैं तथा श्रीकृष्ण-हृदय की अधीश्वरी प्राणाधिका राधिका हैं और वह केवल प्रेमसुधा-जलनिधि में ही पर्यवसित होती हैं। प्रेममय व्रज प्रेमोद्वेक में व्रजांगनारूप ही हो जाता है और व्रजांगनाएँ ‘असावहं त्वित्यबलास्तदात्मिकाः’, ‘कृष्णोऽहं पश्यत गतिम्’ इत्यादि वचनों के अनुसार, श्रीकृष्ण-भावरस-भरिता होकर नन्दनन्दनस्वरूपा हो जाती हैं। रसिकशिरोमणि श्रीकृष्ण प्रेमोन्माद में निजप्रेयसी श्रीवृषभानुनन्दिनी-स्वरूप हो जाते हैं तथा श्री राधिका प्रेमस्वरूप में ही साक्षात अपने प्रियतम के साथ निमग्न होती हैं। इस प्रकार साक्षात वेदान्तवेद्य परम-रसात्मक-सुधाजलनिधि के ही दिव्यविकास-प्रेममय तत्त्व उसी में पर्यवसित होते हैं। इसी तरह अनाद्यनन्त रससागर में रसमय प्रिया-प्रियतम और उनके परिकर की रसमयी लीला का धाम अप्राकृत श्रीव्रज भी रसमय ही है। यद्यपि व्रज में माधुर्यशक्ति का प्राधान्य है, तथापि क्वचित् ऐश्वर्यशक्ति का भी विकास होता ही है। क्योंकि माधुर्यशक्ति का ही अधिक आदर होने पर भी, ऐश्वर्य-शक्ति मूर्तिमती होकर प्रभु की सेवा करने के सुअवसर की प्रतीक्षा करती रहती है। प्रभु भी उसका अत्यन्त तिरस्कार नहीं करते हैं। इसी से मृद्भक्षण आदि लीलाओं में मुखान्तर्गत ब्रह्माण्ड-प्रदर्शन आदि ऐश्वर्यशक्ति के कार्य देखे जाते हैं। अतः विशुद्ध माधुर्य-भाव का प्राकट्य श्रीवृन्दावन धाम में ही माना जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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