भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
व्रज-भूमि
ब्रह्माजी ने कहा- “नाथ! वह स्वात्म-सपर्पण तो आपने सर्वफल-समर्हणीय श्रीचरणों की जिघांसा से विषलिप्त-स्तन्यपान कराने वाली द्वेषवती उस पूतना के लिये भी किया है। आप यदि यह कहें कि कुल-कुटुम्ब समेत व्रजवासियों को स्वात्म-समर्पण कर उऋण हो सकूँगा तो भी ठीक नहीं, क्योंकि पूतना का भी कोई कुल-कुटुम्ब आपकी प्राप्ति से वंचित नहीं रहा। भला जब आपका स्वात्म-समर्पण इतना सस्ता है कि बालघ्नी पूतना को भी आपने स्वात्म प्रादन कर दिया, तब जो धराधन-धाम-सुहृत्-प्रिय तनय तथा आत्मा को भी आपके पादारविन्द-माधुर्य पर न्योछावर करने वाले व्रजवासी जन हैं, उनसे आप स्वात्म-समर्पण मात्र से कैसे उऋण हो सकते हैं? यद्यपि कहा जा सकता है कि बड़े-बड़े योगियों को भी दुर्लभ स्वात्म-समर्पण उनके लिये पर्याप्त है, परन्तु विज्ञजनों की दृष्टि में व्रजधाम-निवासियों की पदवी योगीन्द्र-मुनीन्द्रों को भी दुर्लभ है; क्योंकि यम नियम प्राणायाम प्रत्याहारादि द्वारा बाह्य-विषयों से मन को संयत कर योगीन्द्र अनुक्षण जिस तत्त्व के अनुसन्धान का प्रयत्न करते हैं उसी तत्त्व में इन व्रजनिवासियों की स्वारसिकी प्रीति है। राग यद्यपि प्राणियों के निःसीम स्वात्मसौख्य का अपहरण करने वाला होने के कारण शत्रुवत परिहार्य है, परन्तु, परम-सौभाग्यशाली इन घोष निवासियों का राग तो प्रियतम-परम-प्रेमास्पद आपके मंगलमय स्वरूप में ही है। मोह भी प्राणियों की स्वाभाविकी स्वतन्त्रता का अपहरण करने वाला होने से साक्षात श्रृंखलारूप है; परन्तु इनका तो मोह भी आपमें ही है। अतः इनके तो रागमोहादि दूषण भी भूषणरूप हैं। कारण, भगवत्तत्त्व-व्यतिरिक्त प्रापंचिक पदार्थविषयक ही रागादि त्याज्य हैं। भगवद्विषयक रागादि की प्रेप्सा तो प्रत्येक प्रेक्षावान को ही होती है। कथंचित वैराग्य से भी विराग हो सकता है, पर प्रेममय भगवान से नहीं। तात्पर्य यह कि सर्वविषयक राग-त्याग से यद्विषयक राग की उत्कट प्रेप्सा सम्पादन की जाती है, तद्विषयक उत्कट-राग-सम्पन्न इन घोष निवासियों के माहात्म्य की एक कला की भी बराबरी कौन कर सकता है?” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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