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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
शिवलिंगोपासना-रहस्य
शिव की पूजा के बिना अन्य देवता की पूजा करने से वह देव शाप देकर चला जाता है-
यद्यपि शुद्ध दार्शनिक और आध्यात्मिक विवेचनों से शिवलिंग अनादि ही है, उसकी पूजा भी अनादि ही है तथापि अर्थवादरूप में अनेक प्रकार से शिवलिंग की उत्पत्ति और पूजा का आरम्भ लिखा गया है। जैसे यद्यपि नित्यसिद्ध ही राम, कृष्ण का अवतार माना जाता है, तथापि अवतार से पहले भी वे पूज्य थे ही, क्योंकि कल्प-कल्प में उनके अवतार होते रहते हैं, कोई अवतार नया नहीं है। वैसी ही बात शिवलिंग के विषय में भी समझनी चाहिये। नित्य होने पर भी भिन्न-भिन्न कल्प में उसके आर्विर्भाव के क्रम भिन्न हैं। समष्टि प्रजनन शक्ति सम्पन्न शिवतत्त्व ही समष्टि लिंग है। उसी से समस्त व्यष्टि योनि और लिंगों का आविर्भाव हुआ है। यही सती-शिव के मैथुन से प्रादुर्भूत तेज से सयोनि लिंगों की उत्पत्ति का रहस्य है। प्रकृति-पुरुष का संयोग ही शिव-सती का मैथुन है। प्रकृति-मिश्रित अनन्त पुरुषों का प्रादुर्भाव ही उनका मिश्रित तेज है। समष्टि लिंग से ही उत्पन्न होकर व्यक्ति लिंग बनते हैं। अतः सभी व्यष्टि लिंगों की योनि भी समष्टि लिंग की ही योनि है। यही शिव के दारुका वन-विहार का रहस्य है। अनन्त अनंग (कामदेव) जिनके श्रीअंग के सौन्दर्य-बिन्दु पर मोहित हो जाते हैं, उन भगवान परम शिव की ओर सष्टि-व्यष्टि प्रकृतिरूप योनियों का आकर्षण होना स्वभाव ही है। यही मुनि पत्नियों का शिव की ओर आसक्त होने का रहस्य है। मुनियों या शुक्राचार्य के शाप से भगवान का योनिस्थ लिंगरूप से पूजित होना या शिव के लिंग का गिर जाना, पुनः उससे जगत्ताप होना, शिवा का योनि में स्थापन करना, ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं और ऋषि, मुनि, गन्धर्व, असुरादि द्वारा पूजित होना, यह सभी स्वतन्त्रेच्छ, निरंकुश भगवान की लीला है, जैसे विष्णु परमात्मा का शापवश मनुष्य बनना, मत्स्य, वराह आदि रूप धारण करना केवल लीला है। शापादि भी उनकी इच्छा से ही निमित्तरूप मे उपस्थित होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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