भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
व्रज-भूमि
सत्यलोकपति ब्रह्मा ने कहा कि “हे नाथ! आप इन लोकोत्तर-सौभाग्यशाली व्रजवासियों को क्या देकर उनसे उऋण होंगे?” इस बात को सोचता हुआ मेरा मन निश्चय करने में असमर्थ हो व्यामोह को प्राप्त होता है। प्रभु ने कहा-“ब्रह्मन्! मैं अनन्तकोटि-ब्रह्माण्डनायक हूँ। मेरे पास दिव्यातिदिव्य अनन्त वस्तुएँ हैं जिन्हें देकर मैं इनके ऋण से उन्मुक्त हो सकता हूँ। फिर तुम्हें ऐसा व्यामोह क्यों?” इस पर ब्रह्मा ने कहा- “प्रभो! इन अनन्तानन्त दिव्य वस्तुओं के प्रदान से आप इन घोष-निवासियों से उऋण हीं हो सकते। क्योंकि, अनन्तकोटि-ब्रह्माण्डान्तर्गत सब दिव्यातिदिव्य तत्त्व तो केवल सुख के अभिव्यंजक होने से ही उपादेय हो सकते हैं, पर उन अनन्तकोटि-ब्रह्माण्डगत व्यक्त सौख्यबिन्दु के परम-उद्गम-स्थल अचिन्त्यानन्तसौख्यसिन्धु आप ही हैं। फिर, भला जिनके प्रांगण में साक्षात् अनन्त परमानन्द-सुधासिन्धु ही कन्दर्पकामित परम-कमनीय कान्तिमय मूर्तिमान धूलिधूसरित होरक विहरण करें और रसिकेन्द्रवर्ग नन्दप्रांगण में जिस अप्रमेय सबाह्याभ्यन्तर तत्त्व को उलूखल-निबद्ध दारुयंत्रवत् व्रजसीमन्तिनी-वर्गविधेय बतलाते हैं, उन्हें तुषार-बिन्दु-स्थानीय सौख्याभिव्यंजक वस्तु के प्रदान से आप कैसे प्रसन्न कर सकते हैं? जैसे कृतसंज्ञक चतुरंग द्यूत के विजित होने पर त्र्यङ्क-द्वîक-एकांक द्यूत भी उसके अन्तर्भूत हो जाते हैं, किंवा सर्वतः संप्लुतोदकस्थानीय महासमुद्र को प्राप्त कर लेने पर वापी-कूप-तड़ागादिगत जल की अपेक्षा नहीं रह जाती, वैसे ही सौख्यसुधानिधि सर्वफलात्मास्वरूप प्रभु के स्वायत्त होने पर फल्गु फलों की अपेक्षा कौन विवेकी कर सकता है? अतः हे गोपालचूड़ामणे! आप व्रजनिवासी वर्ग के ऋण से कैसे उन्मुक्त हो सकते हैं?” चतुर-चूड़ामणि व्रजवन नवयुवराज बोलेः-“ब्रह्मन्, तब तो मैं स्वात्मसमर्पण द्वारा इनके ऋण से उऋण हो जाऊँगा। जब मैं ही सर्व फलात्मा हूँ तो मैं इनको स्वात्म-समर्पण से भी प्रसन्न कर सकता हूँ।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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