भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
निर्गुण या सगुण?
राग, द्वेष, शोक, मोह सबका प्रसव इस द्वैत से ही होता है। परन्तु बोध हो जाने पर भक्ति के लिये स्वमनीषाकल्पित द्वैत या अद्वैत से भी अति सुन्दर है-
भगवान निर्गुण भी हैं और सगुण भी। उनकी उपासना भेदभावना तथा अभेद-भावना दोनों ही प्रकार से हो सकती है। स्वयं श्रीमुख को उक्ति है कि-
कोई भक्तियोग से, कोई ज्ञानयोग से मेरा यजन करते हुए उपासना करते हैं। कुछ लोग एकत्वभाव से और कुछ पृथक्त्वभाव से मुझ विश्वतोमुख की उपासना करते हैं। ज्ञानी अत्यन्त निष्काम तथा निष्कपट होकर भगवान को भजता है। अत: “ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्”, “एकभक्तिर्विशिष्यते” इत्यादि स्थलों में श्रीभगवान ने ही ज्ञानी को अपने में अनन्य प्रीतिमान् और उसे निज अन्तरात्मा ही बतलाया है। भगवद्भावापन्न भगवान के अन्तरात्मस्वरूप ज्ञानी को भगवान से भिन्न कोई वस्तु ही दृष्टिगोचर नहीं होती। इसीलिये मृक्तोपसृप्य भगवान को प्राप्त कर लेने से मुक्ति की भी स्पृहा मिट जाती है। अत:-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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