भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
निर्गुण या सगुण?
तथापि स्वरूप-साक्षात्कार के पहले यह स्वाभाविकी निरतिशय निरुपाधिक प्रीति असम्भव है, अतः भगवान और उनमें स्वाभाविकी प्रीति ये सभी उस द्रवावस्थारूप प्रणय के ही पराधीन हैं। इसीलिये किसी महानुभाव ने कहा है कि-
अहो आश्चर्य! मैं तो उस प्रेमबन्धन का वन्दन करता हूँ जिससे बँधकर सबको मुक्ति देने वाला और स्वयं नित्यमुक्त ब्रह्म भी भक्तों का खिलौना बन जाता है। वस्तुतः निरतिशय निरुपाधिक परप्रेमास्पद पूर्णतम पुरुषोत्तम का स्वरूप ही प्रेम है। लोक में यद्यपि प्रेम और उसका आश्रय एवं विषय ये तीनों पृथक होते हैं तथापि अलौकिक दिव्यप्रेम में तीनों ही एक हैं। अत: “आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति” इत्यादि वचनों से निरुपाधिक प्रेम और प्रेमास्पद का अभेद कहा गया है- “प्रेमी प्रेम-पात्रन में बतायो है अभेद वेद।” इसीलिए “जल वीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न। वन्दौं सीताराम पद” इत्यादि वाक्यों से महानुभावों ने मुख्य प्रेमी और प्रेमास्पद सीता और राम में अभेद कहा है। जैसे अमृत और उसकी मधुरिमा का अतिघनिष्ठ तादात्म्य-सम्बन्ध होता है, वैसे ही परमानन्दसुधा सिन्धुसार-सर्वस्व श्रीमद्राघवेन्द्र रामचन्द्र और उनकी माधुर्याधिष्ठात्री परमाह्लादिनी हृदयेश्वरी श्रीजनकनन्दिनी का भी अत्यन्त घनिष्ठ स्वरूपभूत ही सम्बन्ध है। अर्थात सर्वान्तरंग एवं सर्व से सन्निहित में ही सर्वोत्कृष्ट सम्बन्ध होता है। अन्तरंगता और सान्निध्य की समाप्ति या पर्यवसान-निरतिशयता प्रत्यगात्मा में ही होती है। अतः प्रत्यक्चैतन्याभिन्न भगवान में ही प्राणियों का मुख्य प्रेम होता है। ज्ञानीजन परमार्थतः भगवान को अपना अन्तरात्मा समझकर पुनः काल्पनिक भेद का अवलम्बन करके भगवान को भजते हैं। “पारमार्थिकमद्वैतं द्वैतं भजनहेतवे तादृशी यदि भक्तिः स्यात् सा तु मुक्तिशताधिका।।” पारमार्थिक अद्वैत और भजन के लिये द्वैत, बस इस भावना से यदि भक्ति हो तब तो यह भक्ति अपरिगणित मुक्तियों से भी श्रेष्ठ है, क्योंकि अद्वैत-प्रबोध बिना यह द्वैत सर्वानथं का मूल ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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