भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
निर्गुण या सगुण?
एक सखी श्रीकृष्ण-प्रेम में मूर्च्छित अपनी प्रियतमा सखी के उपचार में लगी हुई थी। इतने ही में दूसरी सखी आकर कुछ कृष्ण की चर्चा चलाने लगी। उपचार में लगी हुई सखी वारण करती हुई कहती है-
हे सखि! यदि अपनी प्रिय सखी को विश्रान्ति लेने देना चाहती है तो यहाँ उन (श्रीव्रजराजकुमार) की चर्चा न चला, किन्तु किसी और बात की याद दिलाकर किसी तरह मनमोहन को इसके मन से भुला दे। महामुनीन्द्रगण बाह्य विषयों से मन को हटाकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द में मन लगाना चाहते हैं, किन्तु ये व्रजदेवियाँ अपने मनमोहन श्रीकृष्ण से मन हटाकर अन्य विषयों में लगाना चाहती हैं। योगीन्द्रगण अपने हृदय में जिसके स्मृतिलेश के लिये लालायित हैं, उन्हीं सर्वप्राणि परप्रेमास्पद जीवनधन प्रभु को वे हृदय से निकालना चाहती हैं। ठीक ही है, पूर्ण द्रवीभूत लाक्षा और उसमें स्थायिभावापन्न रंग इन दोनों का इतना अद्भुत घनिष्ट सम्बन्ध हो जाता है कि दोनों ही का परस्पर पृथक होना असम्भव है। उसी तरह भगवद्भावना से द्रवीभूत अन्तःकरण पर भगवान की स्थायिभावापत्ति होने से फिर परस्पर का पार्थक्य असम्भव हो जाता है। यद्यपि जीव का भगवान के साथ स्वाभाविक सम्बन्ध इससे भी बहुत अधिक घनिष्ठ है, जैसे तरंगों की समुद्र के बिना स्थिति ही नहीं, वैसे भगवान के बिना जीव की सत्ता ही नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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