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श्रीविष्णु आदि देवाधिदेवों का भी पूज्य योनि प्रतिष्ठित लिंग प्राकृत वस्तु कथमपि नहीं हो सकता। यदि विष्णु कर्त्तृक पूजा आदि को क्षेपक कहें, तब तो समस्त कथा को ही क्षेपक मान सकते हैं।
अव्यक्त का लिंग (व्यक्त ब्रह्माण्ड) भृगु (प्रकृति) के आकर्षण-विकर्षण विशेष के तारतम्य से द्यावा पृथ्वीरूप में दो टूक हो गया-
- ‘‘वायुरापश्चन्द्रमा इत्येते भृगवः।’’[1]
- ‘‘शंभोः पपात भुवि लिंगमिदं प्रसिद्धम्।
- शापेन तेन च भृगोर्विपिने गतस्य।।’’
श्रीशंकर ने भी विश्वेश्वर लिंग की प्रतिष्ठापना और पूजा की है-
- ‘‘ब्रह्मणा विष्णुना वापि रुद्रणान्येन केन वा।
- लिंगप्रतिष्ठामुत्सृज्य क्रियते स्वपदस्थितिः।।
- किमन्यदिह वक्तव्यं प्रतिष्ठां प्रति कारणम्।
- प्रतिष्ठितं शिवेनापि लिंग वैश्वेश्वरं यतः।।’’
‘नारद पंचरात्र’ के तीसरे रात्र में, तो कि वैष्णवों का सर्वस्व है, लिखा है कि एक शंकर के सिवा सभी स्त्रैण थे। ब्रह्मा, विष्णु, दक्ष आदि ने तपस्या से कालिका देवी को प्रकट किया। देवी ने कहा- ‘वर माँगो।’ देवों ने कहा कि ‘आप दक्ष-कन्या होकर शिव को मोहित करो।’ जगदीश्वरी ने कहा-‘शम्भु तो बालक है।’ ब्रह्मा ने कहा-‘शम्भू के समान दूसरा कोई पुरुष हो नहीं सकता।’ यह सुनकर दक्ष के यहाँ देवी सतीरूप से प्रकट हुईं। देवताओं ने विवाह कराया। सती-शिव के रमण से दोनों का तेज भूमण्डल मे पड़ा, वही पाताल, भूतल, स्वर्ग सर्वत्र योनिसहित शिवलिंग हुए। लिंगपूजा शाक्त, वैष्णव, सौर, गाणपत्य सभी के लिये है-
- ‘‘शाक्तो वा वैष्णवो वापि सौरो वा गाणपोऽथवा।
- शिवार्चनविहीनस्य कुतः सिद्धिर्भवेत् प्रिये।।’’[2]
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