भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
निर्गुण या सगुण?
अपने प्रियतम भगवान के स्वरूप में होने वाले तीव्र राग और उनके विरहव्यथामय तीव्र ताप से भावुक के गुणमय सर्वं कोशों का भस्मीभाव हो जाने और भावनामय भगवत्-म्मिलन सौख्य रस से मन, प्राण, इन्द्रिय, देह तथा रोम-रोम के आप्यायन होने पर बाह्य-आभ्यन्तर सर्वरूप से भगवत्तत्त्व का अवगाहन होता है। इस तरह जब अनिमित्ता भागवती भक्ति गुणमय कोशों को जला देती है, तभी निरुपाधिक एवं निरावरण होकर भावुक अपने भगवान से मिल सकता है। भगवद्विरहव्यथा-तापमयी भक्ति से जिसके अन्नमयादि पंचकोशरूप त्रिविध तनु नहीं तप्त हुए, वे परमतत्त्वामृत के समास्वादन के अधिकारी नहीं हो सकते। यही “अतप्ततनुर्न तदामोऽश्नुते” इस श्रुति का आशय है। “तपसा कृच्छादिना भगवद्विरहजन्यतीव्रतापेन भक्तिपरिणामभूतेन ज्ञानाग्निना वा न तप्ता तनुर्यस्य स तत् परमात्मत्वामृतं नाश्नुते।” कृच्छ्रादि तप, भगवद्विरह-जन्य तीव्र ताप और भक्ति के परिणामभूत ज्ञानाग्नि से जिनके स्थूल, सूक्ष्म, कारण ये तीनों तनु नहीं संतप्त हुए, वे परमतत्त्व का आस्वादन कैसे कर सकते हैं? इसीलिये अनिमित्ता भागवती भक्ति को सिद्धि से भी श्रेष्ठ कहा जाता है। जैसे निगीर्ण अन्न को जाठराग्नि पचा डालती है, वैसे ही अनिमित्ता भक्ति पंचकोशों को जीर्ण कर देती है-
भक्ति ही ज्ञानरूप में परिणत होकर मूल अविद्या का भी विध्वंस करती है। भट्टोजीदीक्षित “क्लृपि संपद्यमाने च” इस वार्तिक के उदाहरणरूप में कहते हैं- “भक्तिर्ज्ञानाय कल्पते, ज्ञानाकारेण परिणमते।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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