भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
निर्गुण या सगुण?
परम कौतुकी प्रभु में ये सभी कौतुक ही तो हैं। इतने पर भी लोगों के प्रश्न होते हैं कि निराकार भगवान साकार कैसे हो सकत हैं, परन्तु इस ओर उनका ध्यान नहीं जाता कि जब कौतुकी कृपालु की लीला से निराकार जीव साकार होता है, क्योंकि सर्वमत से जीव निराकार तथा निरवयव है और स्पर्शविहीन आकाश, स्पर्शयुक्त वायु के रूप में तथा रूपरहित वायु रूपवान तेज के रूप में और रसगन्धविहीन तेज जल के रूप में और रसयुक्त जल गन्धतवी पृथ्वीरूप में अवतीर्ण होता है तब क्या वे निराकार होकर भी साकार रूप में प्रकट नहीं हो सकते? भावुक के द्रुतचित्त पर निखिलरसामृतमूर्ति भगवान का प्राकट्य ही “भक्ति” पद का अर्थ होता है। आशय यह है कि अन्तःकरण लाक्षा (लाख) के समान कठिन द्रव्य है, परन्तु तापक अग्नि के साथ सम्बन्ध होने से जैसे लाक्षा पिघलती है, वैसे ही स्नेह-रागादि तापक भावों के साथ सम्बन्ध होने से अन्तःकरण भी पिघलता है। यही कारण है कि रागास्पद कामिनी तथा द्वेषास्पद सर्पादि पदार्थों को ग्रहण करता हुआ चित्त पिघलकर अपने में उन पदार्थों के स्वरूपों को अंकित कर लेता है। इसीलिये उनका विस्मरण न होकर पुनःपुनः स्मरण होता है। उसे तृण आदि की स्मृति इसीलिये कम होती है कि उनमें रागद्वेष या भय आदि नहीं हुए। अतः चित्त की द्रुति वहाँ नहीं हुई। भावुकों का कहना है कि लाक्षा जब तक कम पिघली होती है, तब तक उसमें कोई रंग व्यापक और स्थिर नहीं होता, अतः तापक अग्नि के सम्बन्ध में लाक्षा इतनी पिघलायी जाय कि सौ पर्त के कपड़े में छानने लायक हो जाय। तब गंगाजल के समान निर्मल और द्रवीभूत उस लाक्षा में जो रंग छोड़ा जाय, वह लाक्षा के अणु-अणु में, सर्वांश में व्यापक तथा स्थिर होता है, फिर चाहे लाक्षा भी चाहे कि मैं अपने से रंग को पृथक कर दूँ, या रंग ही चाहे कि मैं पृथक हो जाऊँ, परन्तु दोनों ही पृथक होने में असमर्थ हैं। ठीक इसी तरह भगवद्विषयक राग आदि से गंगाजल के समान निर्मल और द्रवीभूत चित्त में परमानन्दघन भगवान का प्राकट्य होने पर फिर पिघलती हुई लाक्षा में रंग की तरह सर्वांश में व्यापक तथा स्थिर रूप से भगवान की स्थिति होती है। फिर तो भावना के प्रभाव से अपरिच्छिन्न अनन्त आन्तर रस की अभिव्यक्ति अन्तःकरण प्राण तथा रोम-रोम में सर्वत्र फैल जाती है और आन्तर तथा बाह्य रूप से सर्वथा ही भगवान का अनुभव होने लगता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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