भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
निर्गुण या सगुण?
परन्तु प्रारब्ध-क्षय हो जाने, सर्वोपाधियों के मिटने तथा साक्षात सूर्यरूप हो जाने पर जो सूर्य को आत्मरूप उपलब्ध होता है, वह तो सर्वथा ही अनुपमेय है। जैसे श्रीवृषभानुनन्दिनी दर्पण में अपने मुखचन्द्र की मधुरिमा का अनुभव करती है। अस्वच्छ दर्पण आदि की अपेक्षा स्वच्छ आदर्श पर किंवा श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल पर उन्हें अपने मुखचन्द्र की मधुरिमा अधिक भासित होती है, परन्तु उनके मुखचन्द्र का जो मुख्य माधुर्य है वह तो उनके अन्तरात्मभूत प्रियतम श्रीकृष्ण को ही विदित हो सकता है। किंचित् भी व्यवधान रहने पर रसास्वादन में कमी ही रहती है, अत: भावुकों का कहना है कि यदि मधुर रूप में ही चक्षु हो तभी रूप-माधुर्य का और यदि पुष्प ही में घ्राण हो, तब ठीक सौगन्ध्य का आस्वादन हो सकता है। यह बात तो ठीक यहीं घटती है कि परमानन्द-सारसर्वस्त्र श्रीकृष्ण ही अपनी मधुरिमा (माधुर्याधिष्ठात्री श्रीवृषभानुनन्दिनी) का अनुभव करते हैं वैसे ही काल्पनिक भेद से ज्ञानी अपने स्वरूपभूत भगवान के मधुर रूप का अनुभव करते हैं। यद्यपि वस्तु वही है, तथापि अचिन्त्य दिव्य लीलाशक्ति के अद्भुत प्रभाव से ज्ञानियों का भी मन प्रभु के इस मधुर स्वरूप में बलात् आकर्षित हो जाता है। जैसे फल, वृक्ष, अंकुर, बीज यद्यपि भूमि के ही स्वरूप-विशेष हैं तथापि फल में भूमि, बीज, अंकुर, वृक्ष इस सभी की अपेक्षा विलक्षण सौन्दर्य-माधुर्य-सौगन्ध्य-सौरस्य होता है। एवं गुलाब के बीज या नाल में जैसे शाखा-उपशाखा, कण्टक-पत्र आदि के उत्पादन करने की शक्ति है, वैसे ही पुष्प के उत्पादन करने की शक्ति है। परन्तु कण्टकादि-उत्पादिनी शक्ति की अपेक्षा सौगन्ध्य-माधुर्य-सौन्दर्य-सम्पन्न पुष्प उत्पादन करने की शक्ति विलक्षण है वैसे ही भगवान की महाशक्ति में भी प्रपंचोत्पादिनी शक्ति है और उससे परम विलक्षण परात्पर पूर्णतम भगवान की स्वरूपभूत मधुर मनोहर मंगलमयी मूर्ति का प्रादुर्भाव करने वाली शक्ति भी है। उसी अचिन्त्य दिव्य लीलाशक्ति के योग से निराकार भगवान उसी तरह साकार होते हैं, जैसे शैत्य के योग से निर्मल जल बर्फ रूप में अथवा संघर्ष-विशेष से अव्यक्त अग्नि या विद्युत दाहक और प्रकाशक रूप में व्यक्त होता है। निराकार ब्रह्म की अपेक्षा भी भगवान की मधुर मूर्ति में वैसे ही चमत्कार भासित होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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