भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
निर्गुण या सगुण?
रहा भगवान का अचिन्त्य अनन्त अव्यपदेश्य निराकारस्वरूप, सो उस स्वरूप में तो वे परिनिष्ठित ही हैं। महावाक्यजन्य परब्रह्माकार वृत्ति के साथ ब्रह्म का सम्बन्ध जानकर मन, बुद्धि एवं सर्वेन्द्रियाँ तथा रोम-रोम भी प्रभु के साथ सम्बन्ध के लिये लालायित होते हैं। इन्द्रियाँ स्वयम्भू से पराङ्मुख रची जाकर अपना हिंसन किया जाना इसीलिये समझती हैं कि उन्हें उनके प्रियतम से बहिर्मुख कर दिया गया है- “पराञ्चि खानि व्यतृणत्स्वयम्भूः”। महर्षि वाल्मीकि आदि कवि भी यही कहते हैं कि जिसने श्रीरामचन्द्र को स्नेहभरी दृष्टि से नहीं देखा और श्रीरामचन्द्र ने अनुकम्पाभरी दृष्टि से जिसे नहीं देखा, वह सर्वलोक में निन्दित है और उसकी स्वात्मा भी उसकी विगर्हणा करती है।
जैसे कमलनयन पुरुष के विे अतिशोभन नयन व्यर्थ हैं, जिनका रूपदर्शन में कभी उपयोग न हुआ, वैसे ही ज्ञानी के भी प्रारब्ध भोग पर्यन्त अनिवार्य रूप से रहने वाले देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकारादि व्यर्थ और नीरस ही हैं, यदि इन सबका सदुपयोग प्रभु के सौन्दर्य माधुर्य सौरस्यामृत आदि के समास्वादन में न हुआ। इसीलिये श्री व्रजांगनाओं ने भी कहा है कि नेत्रवानों के नेत्रादि करण-ग्रामों को सार्थकता और इनका चरम फल यही है कि श्रीव्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण के अनुराग भरे कटाक्षपात से युक्त वेणुचुम्बित अमृतमय मुखचन्द्र के सौन्दर्य-माधुर्यामृत का निर्निमेष नयनों से पान किया जाय; घ्राण से सौगन्ध्यामृत और त्वक् से सुस्पर्शामृत का आस्वादन किया जाय। अन्यथा इन करणग्रामों का होना बिलकुल व्यर्थ ही है- “अक्षण्वतां फलमिदं न परं विदामः”। इस प्रकार अन्तरात्मा, अन्तःकरण, प्राण, इन्द्रिय, देह तथा रोम-रोम को अपने दिव्यरस से सरस और मंगलमय बनाने के लिये ज्ञानी के निर्वृत्तिक मन पर अवषिय रूप से प्रकट वही वेदान्तवेद्य सच्चिदानन्दघन भगवान, अनन्तकोटि कन्दर्प के दर्प को दूर करने वाले दिव्य सौन्दर्यमाधुर्य-जलनिधि मधुरातिमधुर स्वरूप से प्रकट होकर अपने स्नेह द्वारा भावुक के द्रवीभूत अन्तःकरण को अपने रंग में रँग देते हैं। यद्यपि सर्वोपाधिविनिर्मुक्त ब्रह्म निरतिशय पर प्रेमास्पद और परमानन्दरूप है, उससे अधिक प्रेमास्पदता और परमानन्दरूपता की कल्पना कहीं नहीं हो सकती; तथापि जब तक प्रारब्ध का अवशेष है, तब तक ज्ञानी को भी अन्तःकरणरूप उपाधि पर ही ब्रह्म का दर्शन होता है। अन्तःकरण से ब्रह्मदर्शन वैसा ही समझना चाहिये जैसे नेत्र से सूर्यदर्शन। परन्तु जैसे दूरवीक्षण यन्त्र की सहायता से नेत्र द्वारा सूर्य का अति दिव्य स्पष्ट स्वरूप दिखाई देता है, वैसे ही दिव्य लीला-शक्ति से वही भगवत्तत्त्व जब परम मनोहर सगुणरूप में प्रकट होता है तब अन्तःकरण से उसमें विलक्षण चमत्कार अनुभूत होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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