भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
निर्गुण या सगुण?
ठीक ही है, तभी तो कहा जाता है कि अमलान्तरात्मा परमहंस महामुनीन्द्रों को ही भक्तियोग विधान करने के लिये ही अदृश्य, अग्राह्य, अचिन्त्य, अव्यपदेश्य भगवान अद्भुत सौंदर्य-माधुर्य-सुधाजलनिधि दिव्यमूर्ति धारण करते हैं। अन्यथा छोटे कार्यों के लिये ब्रह्म का अवतार वैसा ही है जैसा मच्छर हटाने के लिये तोप का प्रयोग। परन्तु समस्त नामरूप-क्रियात्मक प्रपंच से व्यावृत्तमनस्क अमलात्मा परमहंसों को भजनानन्द प्रदान करने के लिये प्रभु का दिव्यस्वरूप धारण परमावश्यक हे। अद्वैत-ब्रह्मनिष्ठ परमहंसों को भक्तियोग प्रदान कर उन्हें श्रीपरमहंस बनाना यही प्रभु के प्राकट्य का मुख्य प्रयोजन है। जैसे मिश्रित क्षीर-नीर का हंस विवेचन करता है, वैसे सांख्य सिद्धान्त के अनुसार प्रकृति प्राकृत-प्रपंच से पृथक, असंग अनन्त चेतनतत्त्व का विवेचन करने वाले हंस कहे जा सकते हैं। परन्तु वेदान्त-सिद्धान्त के अनुसार तो दृक्, दृश्य, आत्मा, अनात्मा या परात्पर पूर्णतम सर्वभासक भगवान और प्रकृति प्राकृतप्रपंच का ऐसा सम्बन्ध है जैसे मुक्ताहार और उसमें कल्पित सर्प का। अर्थात सत्य एवं अनृत का जैसे आध्यासिक सम्बन्ध है वैसे ही दृश्य प्रकृति और उसके भासक एवं अधिष्ठानभूत भगवान का आध्यासिक सम्बनध है। अतः सत्य एवं अनृत के विवेचन से जैसे सत्य ही अवशिष्ट रहता है, अनृत का सर्वथा अभाव हो जाता है, वैसे ही दृक्-दृश्य का भी विवेचन करने पर अनृतस्वरूप दृश्य प्रकृति का अभाव हो जाता है, केवल सर्वदृक् भगवान का अवशेष रह जाता है। ऐसे वेदान्त सिद्धान्तानुसार सत्यानृतरूप क्षीर-नीर का विवेचन कर नीरस्थानीय दृश्य को मिटाकर परम सत्य भगवान में ही स्थित होने वाले परमहंस कहे जा सकते हैं। परंतु “नैष्कर्म्यमप्यच्युतभाववर्जितं न शोभते ज्ञानमलं निरंजनम्”, “रामप्रेम बिनु सोह न ज्ञाना” इत्यादि अभियुक्तोक्तियों के अनुसार विदित होता है कि बिना भगवान के मधुर मंगलमय स्वरूप में पूर्णानुराग हुए उच्च ज्ञान भी सुशोभित नहीं होता। अतः भक्तियोग से ज्ञान को सुशोभित करके परमहंसों को श्रीपरमहंस बना देना ही प्रभु के मधुर मंगलमय स्वरूप धारण करने का मुख्य प्रयोजन है क्योंकि भजनीय के बिना भक्तियोग बन ही नहीं सकता। भगवत्तत्त्व से भिन्न प्रपंच जिनकी दृष्टि में है ही नहीं, उनका भजनीय सिवा भगवान के और क्या हो सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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