भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
“मामेकमद्वितीयं शरणामश्रयं व्रज निश्चिनु। यथा घटाकाशस्याश्रयो महाकाशः तरंगस्याश्रयो महासमुद्रः।” यही निर्विकार अद्वैत चिदात्मा पर तात्त्विक है। इससे भिन्न समस्त नामरूप-क्रियात्मक प्रपंच अतात्त्विक असत् है, अत: गीता ने देहात्मज्ञान, भेदज्ञान, ऐकात्म्यज्ञान इत्यादि भेद से तामस, राजस, सात्त्विक विविध ज्ञान का वर्णन किया है।
जिस शास्त्र तथा आचार्य द्वारा उपदिष्ट ज्ञान से परस्पर विभक्त समस्त भूतों में एक त्रिकालाबाध्य, अव्यय, अधिष्ठानस्वरूप परमात्मा का दर्शन होता है, वही सात्त्विक ज्ञान है। जैसे कटक, मुकुट, कुण्डलादि नाना नामरूप वाले अलंकारों में सुवर्ण, किंवा सर्प, धारा, माला आदि विकल्पनाओं में अधिष्ठान रज्जुखण्ड ही विद्यमान है, वैसे ही अत्यन्त विषम प्रपंच में अधिष्ठानरूप से एक स्वप्रकाश सदानन्द परमात्मा विराजमान है। यही अद्वैत ब्रह्मवाद गीतोक्त सात्त्विक ज्ञान है। यही “ब्रह्मैवेंद सर्व आत्मैवेदं सर्व” इत्यादि श्रुतियों में कहा गया है। “पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभवान् पृथग्विधान्। वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं राजसं स्मृतम्।।” जिस भिन्न-भिन्न पदार्थ विषयक ज्ञान से पृथक प्रकार के नाना भाव जाने जाते हैं, वह राजस ज्ञान है। यह भेद-ब्रह्मज्ञान गीतोक्त राजस ज्ञान है। “सर्व परस्परं भिन्नं” यह ज्ञान श्रुति में कहीं भी प्रतिपादित नहीं है।
देहादि कार्य में ही आसक्त अतत्त्वार्थविषयक ज्ञान तामस ज्ञान होता है। श्रीमद्भागवत में भी सजातीय, विजातीय, स्वगतभेदरहित, स्वप्रकाश, नित्य विज्ञान को ही तत्त्व कहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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