भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
प्रेमास्पद में प्रेम के उद्रेक से आनन्द का उद्रेक होता है। आनन्द के उद्रेक में आन्तर-बाह्य सर्व दृश्य जगत का विस्मरण होता है। तभी चिरकाल-कामित कामिनी के परिरम्भणजन्य आनन्द के उद्रेक में आन्तर-बाह्य दृश्य का विस्मरण होता है। ऐसे ही सुषुप्तिकाल में प्राज्ञ परमात्मा के सम्मिलनजन्य आनन्द से प्रपंच का विस्मरण होता है। सप्रपंच ब्रह्म में सातिशय प्रेम होता है। अत: वहाँ सातिशय आनन्द तथा प्रपंच विस्मरण भी कुछ मात्रा में ही होता है। सर्वोपाधि विनिर्मुक्त भगवान ही निरावरण होने के कारण निरतिशय प्रेम के आस्पद हैं। उन्हीं के सम्मिलन में निरतिशय आनन्द होता है और तभी सम्पूर्ण रूप से सर्वदृश्य का अत्यन्ताभाव होता है। अधिष्ठान साक्षात्कार द्वारा जब तक आवरण निवृत्ति नहीं होती, तब तक जीव को पूर्णरूपेण ब्रह्म का परिष्वंग नहीं होता। जितना व्यवधान-शून्य प्रियतम-परिष्वंग होता है, उतना ही अधिक आनन्द व्यक्त होता है। सृष्टि या प्रबोधकाल में भोग्य और भोक्ता सभी अपने महाकारण से दूर हो जाते हैं। प्रलय तथा सुषुप्ति में वे सभी अपने कारण के सन्निधान में पहुँच जाते हैं। यद्यपि जैसे तरंग किसी अवस्था में भी सागर से वियुक्त नहीं होते, किन्तु सदा सागर के अंक में ही उनकी स्थिति होती है, महासागर से फेन, बुद्बुद, तरंग की तरह परमानन्दसुधासागर से उत्पन्न होने वाले समस्त तत्त्वों की स्थिति प्रभु के मंगलमय श्रीअंग में ही है, तथापि भ्रममूलक भेद और वियोग इतना स्पष्ट व्यक्त हो रहा है कि स्वाभाविक अभेद एवं सम्बन्ध अत्यन्त तिरोहित हो गया है। विस्मृत कण्ठमणि का अन्वेषण तथा महासागर के अन्तर्गत होने वाले हिम उपल की पिपासा इस विषय के पोषक सुन्दर उदाहरण हैं। महाप्रयल के समय समस्त प्रपंच क्रमेण सबीज ब्रह्म में लीन होता है। समस्त वन, पर्वत, नगर, ग्रामादि पार्थिव प्रपंच पृथ्वी में विलीन हो जाते हैं। पृथ्वी जल में, जल तेज में, तेज वायु में एवं वायु आकाश में लय हो जाता है। सृष्टिकाल में जैसे महाकारण, कार्योन्मुख विकसित होकर, सविशेषभाव को प्राप्त होता है, वैसे ही प्रलय काल में समस्त कार्य, कारणोन्तुख संकुचित होकर निर्विशेष भाव को प्राप्त होता है। तन्तु में अंगप्रावरण, शीतापनयनादि कार्यकरण क्षमता नहीं होती; परन्तु पट में होती है यद्यपि वह तन्तुओं से भिन्न कोई स्वतन्त्र पदार्थ न होकर केवल आतानवितानात्मक तन्तुरूप ही है। तथापि उसमें अंग प्रावरण तथा शीतापनयन करने का सामर्थ्य होता है। तन्तु में वह सामर्थ्य नहीं है, वैसे ही घट में जलानयन करने का सामर्थ्य है, किन्तु मृत्तिका में नहीं। मृत्तिका जलानयन कर्तृत्व विशेष रहित होने से निर्विशेष है। घट जलानयनकर्तृत्वयुक्त होने से सविशेष होता है। पट में शीतापनयन कार्य-कारितारूप विशेष है। अतः वह सविशेष है। तन्तु उससे हीन होने के कारण निर्विशेष है। यद्यपि विवेचन करने पर उपादान कारण से भिन्न कार्य कुछ होता नहीं, तथापि कारण की अपेक्षा कार्य में कुछ अनिर्वचनीय विलक्षणता अवश्य होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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