भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
अतः अपुरुषार्थ होने से परमात्म विज्ञान में सर्वविज्ञान विवक्षित नहीं है, अपितु प्रपंच का बाध ही अनर्थ-निवृत्ति रूप होने से विवक्षित हो सकता है। पुत्रवत्सला जननी की तरह परम हितैषिणी भगवती श्रुति यह समझकर कि प्रपंच विज्ञान के लिये व्यग्र जीव प्रपंचातीत ब्रह्मज्ञान के लिये कैसे प्रयत्नशील हो, ब्रह्म के विज्ञान में सर्वविज्ञान का प्रलोभन देकर अधिकारियों के हृदय में ब्रह्मजिज्ञासा उत्पन्न करना चाहती है। साधारणतया प्राणियों की उत्सुकता अनेक प्रकार के भूत भौतिक पदार्थों के विज्ञान में ही होती है। एक-एक भौतिक भाव को जानने में बहुत धन, जन तथा शक्तियों का क्षय किया जाता है। नाना प्रकार के पार्थिव, आप्त, तेजस, विशिष्ट तत्त्वों का बोध होने पर भी अभी तक इयत्ता निश्चित नहीं हो सकी है। एक नगण्य तृण की भी समस्त विशेषताएँ क्या सहस्रों जीवन में भी जानी जा सकेंगी? तब भी पदार्थ विज्ञान की उत्सुकता प्राणियें के हृदय से निकलती नहीं है। इस तरह निरर्थक पदार्थ विज्ञान में उत्सुकता एवं आसक्ति और परम सार्थक भगवत्तत्त्व विज्ञान से बहिर्तुख जीवों के हृदय में भगवत्तत्त्व-विविदिषा उत्पादन करने के लिये भगवती श्रुति कहती है कि “हे शिशुओ! यह तुम समझते ही हो कि जिन भौतिक तत्त्वों की विशेषताओं को जानने के लिये तुम व्यग्र हो, उनका सामस्त्येन बोध लक्ष कल्पों में भी होना कठिन है। अच्छा, यदि तुम्हें सर्व प्रपंच का ही तत्त्व जानना है तो तुम ब्रह्म का विज्ञान सम्पादन करो। बस, एक ब्रह्म के ही विज्ञान में सबका विज्ञान हो जायगा।” इस तरह सर्व विज्ञान के प्रलोभन में आकर यदि प्राणी ब्रह्म-विज्ञान के लिये उत्सुक हुआ और उसने उचित साधनानुष्ठानपूर्वक ब्रह्म का विज्ञान सम्पादन कर लिया, तब तो जिस प्रपंच विज्ञान के लये प्रथम वह अत्यन्त व्यग्र था, उत्सुक था वही प्रपंच जब रज्जुसर्प के समान या स्वप्न की तहर बाधित हो जाता है, तब उसे निस्तत्त्व समझकर उस प्रपंच की जिज्ञासा ही प्रशान्त हो जाती है। जिज्ञासा-निवृत्ति को ही ज्ञान कहते हैं। इस तरह ब्रह्म के विज्ञान में प्रपंच की जिज्ञासा का ही मिट जाना प्रपंच का विज्ञान है। परमात्मतत्त्व से भिन्न यदि किसी भी तत्त्व का अस्तित्व है, तब तो उसकी जिज्ञासा भी अनिवार्य होगी। इसलिये अज्ञलोक-बुद्धिसिद्ध प्रपंच की प्रसक्त निमित्त एवं उपादानरूप द्विविध कारणता भी परमतत्त्व में ही समर्थन की जाती है, क्योंकि केवल निमित्त या केवल उपादान के विज्ञान में सर्व का विज्ञान नहीं हो सकता। मृत्तिका के विज्ञान में घटादि मृण्मय पदार्थों का यद्यपि विज्ञान हो सकता है, तथापि निमित्त-कारणरूप दण्ड, कुलालादि का ज्ञान नहीं होता एवं दण्ड, कुलालादि के ज्ञान में मृत्तिका या उसके घटादि का ज्ञान नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में एक के विज्ञान में सर्व का विज्ञान तभी हो सकता है, जब एक ही परमतत्त्व समस्त प्रपंच का उपादान तथा निमित्त दोनों ही कारण हो। इसीलिये प्रपंच की निमित्त, उपादान उभय-कारणता परमात्मा में ही समर्थन की जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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