भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
यद्यपि प्रतिबिम्ब से भिन्न बिम्ब दर्पण से पृथक हुआ करता है, परन्तु यहाँ तो सत्ता और प्रतीतिरूप दर्पण से भिन्न कोई देश ही नहीं, जहाँ बिम्ब की तरह किसी पृथक वस्तु की स्थिति हो सकती हो। इसी वास्ते हम भी जगत को प्रतिबिम्ब न कहकर प्रतिबिम्ब के समान कहते हैं। वस्तुतत्त्व के बुद्ध्यारोहण के लिये दृष्टान्त का उपादान किया जाता है। दृष्टान्त इतने ही अंश में है कि जैसे दर्पण में न होकर भी प्रतिबिम्ब स्पष्ट रूप से दर्पण में प्रतीत होता है, उसी तरह ब्रह्म में होता हुआ भी प्रपंच अत्यन्त स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है। यह दूसरी बात है कि प्रतिबिम्बाधार दर्पण से भिन्न भी देश है और वहाँ प्रतिबिम्ब का निमित्त बिम्ब भी है। परन्तु यहाँ दृश्याधार अखण्ड ब्रह्मरूप दर्पण से भिन्न कोई देश नहीं, अत: यहाँ बिम्ब के समान काई सत्य वस्तु निमित्त भी नहीं। किन्तु एकमात्र अनिर्वचनीय शक्ति के अद्भुत माहात्म्य से प्रतिबिम्ब की तरह वस्तुतः अत्यन्तासत् दृश्य प्रपंच की प्रतीति होती है। वह शक्ति ही जैसे सर्वदृश्य की कल्पना का मूल है, वैसे ही अपनी कल्पना का भी मूल वह स्वयं ही है। जैसे भेद ही घटपट का भेदक है और वही घट-पट से अपना भी भेद सिद्ध करता है किंवा जैसे अनुभव ही अपने विषयों का और अपने भी व्यवहार का जनक है तथा नैयायिकों का आत्मा ही सर्वज्ञेय का तथा अपना श्री ज्ञाता है, वैसे ही वह शक्ति ब्रह्म को ही सर्व दृश्यरूप में तथा अपने भी रूप में प्रतिभासित करती है। जैसे निष्प्रतिबिम्ब दर्पणमात्र पर दृष्टि डालने से प्रतिबिम्ब नहीं दिखाई देता, वैसे ही निर्दृश्य चितिरूप नित्यदृक् पर दृष्टि डालने से दृश्य, दर्शन और साभास-अहमर्थरूप अनित्य द्रष्टा इन सभी का अत्यन्ताभाव हो जाता है। प्रतिबिम्ब में जब दृष्टि आसक्त होती है उस समय भी यद्यपि दर्पण का दर्शन होता ही है, क्योंकि बिना दर्पण के दर्शन तो प्रतिबिम्ब का दर्शन हो ही नहीं सकता, तथापि शुद्ध निष्प्रतिबिम्ब दर्पण का दर्शन नहीं होता। उसी समय दृश्यादि दृष्टि काल में भी दृश्य के अधिष्ठानभूत अखण्ड स्फुरण रूप भगवान का भान है ही, क्योंकि बिना स्फुरण किसी भी दृश्य की सिद्धि नही होती, तथापि स्पष्ट शुद्ध अनन्त भान नहीं व्यक्त होता है। उसके लिये ही वैराग्यपूर्वक दृश्य की ओर से दृष्टि को व्यावर्तित करके केवल निर्दृश्य विशुद्ध अखण्ड भान पर दृष्टि स्थिर करना होता है। उसी तरह अधिष्ठान का साक्षात्कार होने पर फिर केवल जब तक प्रारब्ध का अवशेष है, तभी तक व्युत्थान काल में दृश्य का स्फुरण होता है। प्रारब्ध क्षय होने पर सदा के लिये दृश्य मिट जाता है और अखण्ड आनन्द परिपूर्ण भगवान ही अवशिष्ट रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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