भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
आनन्दसागर और भवसागर का संयोग समवाय आदि सम्बन्ध तो बनता नहीं। अतः केवल आध्यासिक ही सम्बन्ध है-अर्थात आध्यासिक सम्बन्ध से प्रपंच ब्रह्म में रह सकता है। इसे यों भी समझ सकते हैं, जैसे दर्पण में आकाशमण्डल, सूर्यमण्डल, चन्द्र एवं नक्षत्रमण्डल, भूधर, सागरादि नाना प्रकार के दृश्य प्रतिबिम्बरूप से दिखाई देते हैं-वस्तुतः हैं ही नहीं, केवल प्रतीत होते हैं, ठीक वैसे ही महाप्रतीतिरूप दर्पण में यह समस्त चराचर प्रपंच देह, इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि, अहंकार और अज्ञान ये सभी प्रतिबिम्ब के समान न होते हुए भी प्रतीत होते हैं। समस्त देश एवं क्षण, प्रहर, दिवस, पक्ष, मास, अब्द, युग, कल्प तथा गत-आगत नाना प्रकार के काल, ये सभी अखण्ड अनन्त निर्मल असंग प्रतीतिरूप दर्पण में ठीक प्रतिबिम्ब की तरह प्रतीत हो रहे हैं। जैसे रूपादि-ग्रहण लिये प्रवृत्त भी चक्षु सौरादि आलोक का ग्रहण करता है, पीछे आलोकावभासित रूप का ग्रहण करता है, ठीक वैसे ही सर्वभासिका प्रतीति का स्फुरण पहले होता है। तदनन्तर प्रतीति-प्रकाशित अहंकारादि दृश्य का स्फुरण होता है। किंवा जैसे पहले दर्पण का ग्रहण होता है, पीछे दर्पणान्तर्गत प्रतिबिम्ब की प्रतीति होती है, वैसे ही पहले प्रतीतिरूप दर्पण की प्रतीति होती है। यही “तमेव भान्तमनुभाति सर्व तस्य भासा सर्वमिदं विभाति” इस श्रुति का आशय है। परमात्म-प्रकाश के पीछे सर्व दृश्य का प्रकाश होता है और परमात्म-प्रकाश से ही सकल दृश्य प्रकाशित होता है। चक्षुरादि इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहंकार ये सभी अपने-अपने प्रकाश्य विषयों का प्रकाशन करने वाले हैं, अतः ज्योति हैं। परन्तु इन ज्योतियों का भी प्रकाशन करने वाला विशुद्ध-भानरूप परमात्मा ज्योतियों का भी ज्योति है-“ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते।” तमरूप अज्ञान का भी प्रकाशक वही है। अतः “देशः स्फुरति देशोऽस्ति। कालो भाति कालोऽस्ति। वस्तूनि स्फुरन्ति वस्तूनि सन्ति” इत्यादि रूप से “देश की प्रतीति, काल की प्रतीति, वस्तुओं की प्रतीति, एवं देश है, काल है, वस्तु है, इस प्रकार देशकाल वस्तु की सत्ता अत्यन्त स्पष्ट है। जैसे दर्पण से प्रतिबिम्ब कवलित है, दर्पण के बिना उसकी प्रतीति ही नहीं हो सकती, वैसे ही देश, काल तथा समस्त वस्तुएँ अबाधित सत्ता एवं अखण्ड अनन्त प्रतीति से कवलित हैं। अतः बिना प्रतीति और सत्ता के देशादि की सिद्धि हो ही नहीं सकती सत्ता और स्फूर्ति से विहीन देशादि असत् तथा निःस्फूर्ति हो जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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