भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
ब्रह्म निरवयव तथा निष्कल और प्रपंच सावयव सकल है। अतः ब्रह्म और प्रपंच का सम्बन्ध कैसे और कौन हो सकता है? निगुर्ण तथा निष्क्रिय होने के कारण ब्रह्म द्रव्य नहीं कहा जा सकता। अत: उसमें संयोग या समवाय दोनों नियामक सम्बन्ध नहीं हो सकते। निष्कल निरवयव में भी यह सम्बन्ध नहीं हो सकता, अतः केवल आध्यासिक सम्बन्ध मानना उचित है। इसी आशय से “मया ततमिदं सर्व जगदव्यक्तमूर्तिना। मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।” “न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्। भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।।” आदि वचन आये हैं, जिनका भाव यह है कि मुझ अव्यक्त-मूर्ति से समस्त साकाश प्रपंच व्याप्त है, समस्त भूत मेरे हैं पर मैं उनमें स्थित नहीं हूँ, वास्तव में तो समस्त प्रपंच मुझमें स्थित भी नहीं हैं। आशय यह है कि बहिर्मुख प्राणियों की दृष्टि में प्रपंच ही स्पष्ट रूप में विद्यमान है, प्रपंचातीत भगवान का तो अस्तित्व ही दुर्गम है, अतः प्रथम प्रपंच के कारणरूप से या आधार तथा भासक सत्ता स्फूर्तिप्रदरूप से भगवान के अस्तित्व पर विश्वास होना यह सबसे बड़ी बात है। कुछ अभिज्ञ प्रपंच देखकर उसके आधार या कारण का अन्वेषण करते हैं। यदि भगवान प्रथम ही यह कह दें कि न मैं प्रपंच में हूँ, न प्रपंच मुझमें है, तब तो निज दृष्टिसिद्ध प्रपंच के कारण का अन्वेषण करने वाला साधक भगवान से निराश होकर परमाणु, प्रकृति या अन्य किसी को प्रपंच के कारणरूप से निश्चय करेगा। अतः भगवान प्राणि कल्याणार्थ प्रथम यही कहते हैं कि “मैं ही जगत का कारण हूँ। यदि तत्त्वतः विवेचन किया जाय तब तो जगत नाम का कोई पदार्थ ही नहीं है। परन्तु यदि अज्ञ बुद्धिसिद्ध व्यावहारिक जगत है, तो मेरे में ही है। मैं ही इसके भीतर, बाहर, मध्य में तथा मैं ही इसका भासक हूँ।” जब इस तरह प्रभु के उपदेश से प्राणी को प्रपंच से भिन्न एक भगवान पर विश्वास हो जाता है तब फिर ठीक-ठीक तत्त्व का उपदेश किया जाता है कि वस्तुतः मेरे से भिन्न होकर प्रपंच है ही नहीं; जो कुछ है वह बस, एक मैं ही हूँ। जैसे भ्रान्ति से किसी को अमृतसागर में क्षारसागर की कल्पना हो, ठीक वैसे ही एक अखण्ड आनन्दसागर में ही भवसागर की कल्पना है। आनन्दसागर ही भ्रान्ति से भवसागर के रूप में भासित होता है। आनन्दसागर से भिन्न होकर भवसागर नाम की कोई वस्तु है ही नहीं। भीतर, बाहर, सर्वत्र अचिन्त्य, अनन्त, अखण्ड संवित्सुखसागर का भान हो रहा है, इसीलिये गोस्वामी जी कहते हैं- “आनंदसिन्धु मध्य तब बासा। बिनु जाने कत मरसि पियासा।” अतः भगवान सर्वकारण, सर्वाधार, सर्वभूत भी असंग और सर्वरहित हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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