भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
वस्तुतः जैसे तन्तुओं से भिन्न होकर पट नाम की कोई तात्त्विक वस्तु नहीं है एवं कनक से भिन्न कुण्डलादि पृथक वस्तु नहीं है और जल से भिन्न तरंग नाम का कोई पदार्थान्तर नहीं है, किन्तु तन्तु आदि में ही पटादि की कल्पना है, ठीक वैसे ही ब्रह्म से भिन्न होकर देशकाल वस्तु कुछ है ही नहीं। अतः देशकाल वस्तु में ब्रह्म नहीं, किन्तु देशकाल वस्तु ही ब्रह्म में कल्पित है। इसी वास्ते “यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु। प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्।।” भगवान के इस वचन से यह कहा गया है कि जैसे आकाशादि पंच महाभूत उच्चावच नाना प्रकार के भौतिक प्रपंचों में प्रविष्ट होते हुए भी अप्रविष्ट हैं, उसी तरह मैं महाभूतों में प्रविष्ट हूँ और अप्रविष्ट भी हूँ। कार्यवर्ग में महाभूतादि कारणों की उपलब्धि होती है, अतः प्रवेश की कल्पना है। वस्तुतः “प्रागेव विद्यमानत्वान्न तेषामिह संभवः” प्रथम से ही जो व्यापक हैं, उनका प्रवेश क्या कहा जाय? इसी अभिप्राय से “न त्वहं तेषु ते मयि” इस वचन से भगवान्ने ही अत्यन्त स्पष्ट कर दिया है कि सर्व प्रपंच मुझमें हैं, मैं प्रपंच में नहीं हूँ। इससे सिद्ध हुआ कि ब्रह्म से रहित कोई देश या काल है ही नहीं, जहाँ भगवान से भिन्न किसी वस्तु की स्थिति हो। किन्तु जब सभी देश और काल ही ब्रह्म में हैं, तब फिर देशनिष्ठ, कालनिष्ठ वस्तु सुतरां ब्रह्म में ही पर्यवसित होगी। अब देखना यह है कि देश, काल एवं वस्तु ये असंग ब्रह्म में कैसे रहते हैं। श्रुतियों ने ब्रह्म को ही समस्त प्रपंच का उपादान एवं निमित्त कारण भी बतलाया है। यदि थोड़ी देर के लिये प्रकृति को ही उपादान मान लें, तो भी वही प्रश्न उठता है कि प्रकृति कहाँ है- ब्रह्म में या उससे पृथक? जब ब्रह्म से पृथक देश, काल नहीं तो पृथक देश में प्रकृति की कल्पना कैसे उठ सकती है? यदि ब्रह्म में ही प्रकृति है तब वहाँ भी वही प्रश्न है कि किस सम्बन्ध से ब्रह्म में प्रकृति रहती है? यदि प्रकृति या जगत का ब्रह्म के साथ कोई सम्बन्ध मानें तो ब्रह्म में असंगता नहीं रहती है। साथ ही उपादान को छोड़कर अन्यत्र कार्य की सत्ता भी नहीं कही जा सकती। वारि को छोड़कर वीचि एवं सुवर्ण को छोड़कर कुण्डलादि पृथक कैसे रह सकते हैं? साथ ही प्रपंच तथा भगवान का स्वभाव भी अत्यन्त विरुद्ध है। ब्रह्म अपरिच्छिन्न, प्रपंच परिच्छिन्न, ब्रह्म अमृत, प्रपंच मर्त्य, ब्रह्म सुख-दुःख-मोहातीत, प्रपंच सुख-दुःख-मोहात्मक, तथा ब्रह्म परमसत्य स्वप्रकाश परमानन्दरूप और प्रपंच अनृत जड़ दुःखरूप है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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