भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
जो कुछ भी सुख की कल्पना है, वह केवल राजस-तामस भावों के उद्रेक से चांचल्य और द्वैतदर्शन के आधिक्यरूप दुःख की अपेक्षा से ही है। जितनी-जितनी प्रपंच की निवृत्ति एवं अन्तर्मुखता होती है, उतने-उतने अंशों में सुख की कल्पना है। सुषुप्ति में द्वैतदर्शन की पर्याप्त निवृत्ति होती है, अतः वहाँ सुख भी पर्याप्त होता है। इसीलिये जीव और उनके भगवान दोनों की प्रवृत्ति स्वरूपभूत निष्प्रपंच सुख के लिये होती है। जिस जीव को एक दिन नींद नहीं आती, वह घबरा जाता है और उसे प्रजागर दोष समझकर नींद के लिये सहस्रों उपचार करता है। उस समय चाहे कितनी भी दिव्यातिदिव्य सौख्य सामग्रियाँ क्यों न प्राप्त हों, सबकी सब बेकार प्रतीत होती है, उनकी प्रतीति भी खटकती है। सब कुछ छोड़कर केवल सोने के ही लिये जीव व्यग्र हो उठता है। यह क्या निष्प्रपंच अद्वैत सुख की महत्ता नहीं है? अब कृतप्रज्ञ यह सोच सकते हैं कि जब सारवण निष्प्रपंच अद्वैत सुख में सबका इतना आकर्षण है, तब निरावरण, निरतिशय, निष्प्रपंच अद्वैत ब्रह्मसुख में सभी का कितना प्रेम होगा? यहाँ यह समझ लेना चाहिये कि सौषुप्त निष्प्रपंच ब्राह्मसुख सावरण एवं सबीज है, इसीलिये इसे प्राप्त कर भी जीवों का पुनरुत्थान होता है और जीवों को ही कर्मफल देने के लिये लीलया भगवान का भी उत्थान होता है। अधिष्ठान के साक्षात्कार से जिन लोगों के अज्ञानरूप बीज की निवृत्ति होती है उन निर्बीज ब्रह्मभावापन्नों का पुनरुत्थान नहीं होता। सबीज से ही समस्त प्रपंच का प्रादुर्भाव होता है- जैसे अखण्ड, अनन्त नभोमण्डल में एक अतिक्षुद्र मेघ का अङ्कुर होता है, उसी तरह अनन्त, अखण्ड, परिपूर्ण परमानन्द स्वप्रकाश भगवान के अति स्वल्प प्रदेश में अनन्त अचिन्त्य दिव्य महामाया शक्ति होती है। उसके भी अति स्वल्प प्रदेश में अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड जननी अनन्त अवान्तर शक्तियाँ होती हैं। एक-एक शक्ति में सत्त्व, रज, तम के प्राधान्याप्राधान्य से विद्या-अविद्या तामसी प्रकृति आदि अनेक भेद हो जाते हैं। रज और तम के लेश से भी अनाक्रान्त अत एव विशुद्ध सत्त्वप्रधाना शक्ति को माया या विद्या कहते हैं; एवं रज तथा तम से संस्पृष्ट अविशुद्ध सत्त्वप्रधाना शक्ति को अविद्या कहते हैं, और तमःप्रधाना शक्ति तामसी प्रकृति कही जाती है। यद्यपि कहीं-कहीं मूल प्रकृति में भी माया और अविद्या पद का प्रयोग होता है, जैसे “मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्” इत्यादि, तथापि वह कार्य और कारण के अभेद से औपचारिक समझना चाहिये। जैसे मीमांसक गोविकार पय में भी गोपद का प्रयोग उपचार से मानते हैं यथा “गोभिः श्रीणीत मत्सरम्” वैसे ही कहीं कार्य का प्रयोग कारण में हो जाता है। अतः मूल महाशक्ति की अवान्तर शक्तियों के विभाग में विद्या-अविद्या आदि पदों का प्रयोग शास्त्र सम्मत है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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