भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
किंबहुना अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक भगवान ही अपनी अचिन्त्य दिव्यलीलाशक्ति से श्रीमद्राघवेन्द्र रामचन्द्र एवं श्रीकृष्णचन्द्र स्वरूप में प्रकट होते हैं, परन्तु उनमें भी स्वसम्बन्ध से प्रेम का तारतम्य देखा जाता है। जो अपने इष्टदेव हैं, उनके सौन्दर्य, माधुर्य, ऐश्वर्य एवं चरित्रादि में जितना प्रेम, जितना आकर्षण होता है, उतना अन्य में नहीं। और तो क्या कृष्णस्वरूप में ही महानुभावों ने पाँच भेदों की कल्पना कर डाली है। वे द्वारकास्थ, मथुरास्थ कृष्ण के अतिरिक्त “व्रजे वने निकुञ्जे च श्रैष्ठ्यमत्रोत्तरोत्तरम्” के अनुसार पूर्ण, पूर्णतर पूर्णतम भेद से व्रजस्थ वृन्दावननस्थ लीलानिकुञ्जस्थ श्रीकृष्ण में भेद स्वीकार कर पूर्णतम लीलानिकुञ्जनायक श्रीकृष्ण में ही अपना हृदय आसक्त करते हैं। अन्य के स्वरूपसौन्दर्यादि में उनके चित्त आकर्षित नहीं होते हैं।
कुछ वस्तु के उत्कर्ष से उसमें प्रेम नहीं होता है, किन्तु स्वसम्बन्ध से ही वस्तु की उत्कृष्टता भी व्यक्त होती है। अत: “गुणैविहीनो गुणिनां वरो वा” इत्यादि वचनों से पहले ही कह आये हैं कि “अनन्त गुणसमलंकृत हो या सर्वगुणविहीन हो, जो अपना है वही सर्वस्व है।” पूर्णतम होने के कारण ही उनकी ओर सभी का चित्त आकर्षित नहीं होता है-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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