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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
शिवलिंगोपासना-रहस्य
चौबीस प्रकृति-विकृति, पचीसवाँ पुरुष, छबीसवाँ ईश्वर यह सब कुछ लिंग ही है। उसी से ब्रह्म, विष्णु, रुद्र का आविर्भाव होता है। प्रकृति के सत्त्व, रज, तम इन तीनों गुणों से त्रिकोण योनि बनती है। प्रकृति में स्थित निर्विकारबोधरूप शिवतत्त्व ही लिंग है। इसी को विश्व-तेजस-प्राज्ञ, विराट-हिरण्यागर्भ-वैश्वानर, जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति, ऋक्-साम-यजु, परा-पश्यन्ती-मध्यमा आदि त्रिकोणपीठों में तुरीय, प्रणव, परा वाकस्वयप लिंगरूप में समझना चाहिये। ‘‘अ, उ, म’’ इस प्रणवात्मक त्रिकोण में अर्द्धमात्रा स्वरूप लिंग है। परमेश्वर समष्टि व्यष्टि लिंगरूप से प्रत्येक योनि में प्रतिष्ठित होकर पंचकोशात्मक देहों को उत्पन्न करता है- ‘‘अधितिष्ठति योनि यो योनि वाचैक ईश्वरः। ‘‘आसीज्ज्ञानमयो ह्यर्थ एकमेवाविकल्पितम्।’’ ‘‘मेनेऽसन्तमिवात्मानं सुप्तशक्तिरसुप्तदृक्’’[2]।
निरधिष्ठान शक्ति नहीं और अशक्त अधिष्ठान नहीं, अतः उभय स्वरूप ही है। इसीलिये शिव ही शक्ति और शक्ति ही शिव, इस दृष्टि से योनि लिंगात्मक एवं लिंग योन्यात्मक है। फिर भी इस द्वैत में अद्वैत तत्त्व अनुस्यूत है। ईश्वर और महाशक्ति की अधिष्ठानभूत अद्वैतसत्ता भी निरंजन, निष्कलसत्ता के साथ एकीभूत है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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