भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
हे भगवन! मैं ही तुम हो और तुम ही मैं हूँ, क्योंकि जो लोग प्रेम करते हैं तो उनहें यही कहना पड़ता है कि मुझे कुछ नहीं चाहिये, केवल प्रभुप्रेम में या प्रभुस्वरूप के सौन्दर्यमाधुर्यसुधासमास्वादन में मुझे लोकोत्तर रस आता है। ऐसी स्थिति में विवेकीजनों को स्पष्ट हो जाता है कि वह प्रेमी अपने आनन्द के लिये ही प्रभु में प्रेम करता है, प्रभुस्वरूप-सम्बन्धी सौन्दर्यमाधुर्यरसामृत के आस्वादन से ही उसकी आत्मा को आननद होता है। इसीलिये जिनके ऐसे भी भाव हैं कि प्रियतम मुझसे अनुकूल हों या प्रतिकूल, सर्वगुणसम्पन्न हों या सर्वगुणरहित, सौन्दर्य-माधुर्य-सुधाजलनिधि हों या सौन्दर्य-माधुर्य-विहीन, सब प्रकार से हमारे ध्यये, ज्ञेय, प्रियतम प्रभु ही हैंः-
उनकी आत्मा को सुख और शान्ति सब प्रकार से प्रभुसमाश्रयण में ही होती है। इसलिये ये समस्त भाव आत्मा के लिये हुए। प्रभु के लिये लोक-परलोक सब प्रकार की सुखशान्ति का किंबहुना प्राणादि समस्त प्रियतम वस्तुओं का त्याग किया जाता है। यहाँ पर भी सूक्ष्म रूप से देखने पर यही विदित होता है कि उस प्रेमी की आत्मा को ऐसा ही करने पर सुख मिलता है, अतः यह सब कुछ आत्मा के लिये ही है। लोक में कोई धार्मिक पुरुष धर्मरक्षा के लिये आत्मा की आहुति दे देते हैं। वेदों में भी एक यज्ञ ऐसा है जिसमें यजमान अपना सर्वस्व ब्राह्मणों को देकर स्वयं अपने को अग्निकुण्ड में समर्पण कर देता है। परन्तु इन सभी स्थलों में इस प्रकार के उत्कट त्याग और तपस्याओं का लक्ष्य अन्तरात्मा की अनन्त शान्ति में ही है। इसी प्रकार के भावों को लक्ष्य में रखकर आत्मा के औपाधिक चिदाभास-स्वरूप-बाध के लिये साधिष्ठान चिदाभास से ही प्रयत्न किया जाता है। इसीलिये भगवती श्रुति ने स्पष्ट निर्णय करके यहाँ भी सर्वोपप्लव-विवर्जित, परमाननदरूप चिदात्मा का शेष रहना लक्ष्य रखा है- “आत्मान प्रियमुपासीत” अर्थात प्रियरूप से आत्मा की ही उपासना करनी चाहिये। आत्मा से भिन्न को जो प्रिय कहता है, उसे प्रिय के लिये रुदन करना पड़ता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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