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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
शिवलिंगोपासना-रहस्य
‘शिवपुराण’ में लिखा है कि एक शिव ही ब्रह्मस्वरूप होने से निष्कल है, दूसरे देव सभी रूपी होने से सकल कहे जाते हैं। निष्कल होने से ही शिव का निराकार (आकार विशेष शून्य) लिंग ही पूज्य हेाता है, सकल होने से ही अन्य देवताओं का साकार विग्रह पूज्य होता है। शिव सकल, निष्कल दोनों ही हैं, अतः उनका निराकार लिंग और साकार स्वरूप दोनों ही पूज्य होते हैं। दूसरे देवता साक्षात निष्कल ब्रह्मरूप नहीं है। अत एव निराकर लिंगरूप में उनकी आराधना नहीं होती[1]। यही आगे निष्कल स्तम्भ रूप में ब्रह्मा-विष्णु का विवाद मिटाने के लिये शिव का प्रादुर्भाव वर्णित है। श्रीशिवलिंग ही से समस्त विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और अन्त में सबका उन्हीं में लय होता है। सबके आश्रय होने से और सबके लय का अधिष्ठान होने से भगवान ही लिंग कहलाते हैं। अथवा कार्य द्वारा कारणरूप से लिंगित- अवगत होने से ही भगवान लिंग शब्दवाच्य है। इसलिये जब सब सृष्टि का आधार ही शिवलिंग है, तब तो फिर सर्वत्र शिवलिंग की पूजा पायी जाय, यह ठीक ही है। अतः यह पहले अनार्यों की पूज्य मूर्ति थी, यह सब कहना निराधार ही है। दूसरी दृष्टि से कूटस्थ स्थाणु परब्रह्म ही शिव है। श्रीपार्वती शक्ति अपर्णा लता के संसर्ग से यह पुराण स्थाणु कैवल्यपदवी देता है जो कि कल्प वृक्षों के लिये देना भी अशक्य है। स्थाणु (ठूँठ) लिंगरूप में व्यक्त शिव है, अपर्णा जलहरी है। शिवलिंग का कुछ अंश जलहरी से ग्रस्त है, यही योनिग्रस्त लिंड्ग है, प्रकृति संस्पृष्ट पुरुषोत्तम है-‘‘पीठ मम्बामयं सर्वं शिवलिंगंच चिन्मयम्।’’ ‘‘पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।’’ प्रकृति विशिष्ट परम ब्रह्म ही सर्वकर्ता, सर्वफलदाता है, केवल तो उदासीन है। शुद्ध शिवतत्त्व त्रिगुणातीत है, त्रिमूतर्त्यन्तर्गंत शिव परम बीज, तमोगुण के नियामक हैं। सत्त्व के नियमन की अपेक्षा भी तम का नियमन बहुत कठिन है। सर्वसंहारक तम है, पर उसको भी वश में रखने वाले शिव की विशेषता स्पष्ट ही है। एक दृष्टि से लिंग चिह्न को भी कहा जाता है। चिह्नशून्य, निर्गुण, निराकार, निर्विकार ब्रह्म अलिंग है। श्रुतियाँ उसे अशब्द, अस्पर्श, अरूप बतलाती हैं। परन्तु, लिंग का अधिष्ठान मूल वही है। अव्यक्त तत्त्व लिंग है। माया द्वारा एक ही परब्रह्म परमात्मा से ब्रह्माण्डरूप लिंग का प्रादुर्भाव होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ विद्येश्वरसंहिता, शि० पु० 3 अध्याय
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