भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
अहो! दुराप (दुर्लभ) जन में रति और लज्जा का प्राबल्य, परवश शरीर, कुलीन वंश में जन्म, तत्रापि गुरुजनों की विषमयी उक्तियों से मति और विकल होती जाती है। अहो! फिर भी क्या यह परम दुर्भर प्राणी नहीं जीता? परन्तु यह सभी भाव श्रीकृष्ण रति के वर्धक हैं। मानिनी नायिकाओं का दर्प और मान भी रस है। श्रीवृषभानुकिशोरी की मानलीला प्रसिद्ध ही है। इस तरह जो पहले भगवत्सम्मिलन में प्रतिबन्धक एवं व्यवधान थे, वही अब रसस्वरूप एवं रस के वर्धक हो गये। निखिलरसामृतमूर्ति कृष्णांग संस्पर्श का सुख मिला और उनके अंग-अंग, रोम-रोम, इन्द्रिय, प्राण, अन्तःकरण, अन्तरात्मा सर्वत्र कृष्णरस का संचार हुआ। श्रीव्रजबालाएँ रसमयी हो गयीं। अप्राकृत रसस्वरूप श्रीकृष्ण के सौन्दर्य, माधुर्य, सौरस्य, सौगन्ध्य आदि गुणों का अनुभव प्राकृत अंगों, इन्द्रियों एवं अन्तःकरणों से नहीं हो सकता। अप्राकृत रसरूप श्रीकृष्ण का अनुभव करने के लिये रसात्मक शरीरेन्द्रियादि की अपेक्षा होती है। साथ ही रसात्मक श्रीकृष्ण का रमण भी रसात्मक ही में हो सकता है। श्रीकृष्ण आत्मरति हैं, अतः जब तक व्रजांगना रसात्मक श्रीकृष्णमय न हो जायँ, जब तक वे श्रीकृष्ण रमणार्ह नहीं हो सकतीं श्रीकृष्णांग संस्पृष्ट वस्त्रों के संसर्ग से व्रजांगनाओं के प्राकृत भाव की निवृत्ति एवं श्रीकृष्णभाव की प्राप्ति होती है। जैसे अभिव्यक्त अग्नि के सम्बन्ध से अनभिव्यक्त अग्निवाले काष्ठ में भी अग्नि की व्यक्ति हो जाती है, अग्नि सर्वत्र व्यापक है, केवल प्राकट्य की ही विशेषता होती है, उसी भाँति “रसो वै सः”, “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” इत्यादि श्रुतिवचनों के आधार पर यह प्रसिद्ध है कि रसात्मक ब्रह्मस्वरूप ही सब कुछ है। केवल अनाद्यनिर्वाच्याविद्यामय नामरूपों द्वारा वह तत्त्व आवृत रहता है। निरावरण रसात्मक ब्रह्म श्रीकृष्ण के सम्बन्ध से सभी वस्तु निरावरण रसात्मक श्रीकृष्णमय हो जाती हैं। बस, इस तरह श्रीकृष्ण के स्पर्श से व्रजांगनाओं के वस्त्र निरावरणस्वरूप हो गये, फिर उनके धारण से व्रजांगनाओं में भी रसात्मकता आ गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज