भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
वात्सल्य भाव का माधुर्य विलक्षण है। ऐश्वर्य का बोध रहने से प्रत्येक प्रवृत्ति में भय और संकोच रहेगा। निःसंकोच, निर्भर, ममत्वपुरःसर वात्सल्य रस में ऐश्वर्य बाधक ही होगा। अत एव “व्यतनोद्वैष्णवीं मायां पुत्रस्नेहमयीं विभुः।” उस पुत्रस्नेहमयी वैष्णवी माया का विस्तार किया, जिससे शुद्ध वात्सल्य रस की वृद्धि हो। पहले तो भगवान भजने वालों को भक्ति दे देते हैं, मुक्ति नहीं देते हैं, क्योंकि मुक्ति में तो भक्त भगवत्स्वरूप हो जाता है, परन्तु भक्ति में तो भगवान को अपने वश में कर लेता है। भक्ति की ही महिमा से भगवान यशोदा की छड़ी से एवं उलूखल बन्धन से भयभीत होकर रोते हैं। “माँ मैंने मिट्टी नहीं खायी” ऐसा झूठ भी बोलते हैं-“अस्त्वेवमंग भगवान् भजतां मुकुन्दो मुक्ति ददाति कर्हिचित्स्म न भक्तियोगम्।” तथापि जब भगवान भक्ति दे देते हैं, तब फिर अपनी लीला में बाधा नहीं डालना चाहते। ऐश्वर्य बोध होने पर वैष्णवी माया से पुनः उसे छिपाकर लीला सुख का आस्वादन करते और कराते हैं।
माधुर्याधिष्ठात्री महाशक्ति की यही तो महिमा है कि यहाँ ऐश्वर्य छिप जाता है, यहाँ स्वतन्त्र भगवान भी भक्त परतन्त्र होते हैं। परम निर्भय काल के भी काल रूप भगवान भी भयभीत होते हैं। अनन्त जीवों को मुक्ति देनेवाले भगवान भी प्रणय पाश में बँध जाते हैं, यहाँ पूज्यता और समाधि अनादरणीय होती है, सेतुधारक ही यहाँ भिन्न सेतु हो जाता है। वस्तुतः प्रकृति, प्राकृत प्रपंच के विधि-निषेधों का प्रपंचातीत रसमय भगवान में न होना स्वाभाविक ही है, फिर भी जिन्हें स्वाभाविक काम, कर्म, ज्ञानरूप मृत्यु से तरना है, उनके लिये तो भगवान का मर्यादामय, सेतुधारक स्वरूप ही अपेक्षित है। जैसे भगवदवतारभूत नर-नारायण एवं ऋषभदेव के चरित्र ब्रह्मचारियों, गृहस्थों के अनुकरणीय हैं, वैसे ही संसारतितीर्षु के लिये श्रीकृष्ण का चरित्र भी अनुकरणीय है। यह तो केवल चिन्तन से पापनाशक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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