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वही ‘‘ तदण्डमभवद्वैमं सहस्रांशुसमप्रभम्’’[1] है। अर्थात् सूर्यके समान परम तेजोमय अण्ड उत्पन्न हुआ।
- ‘‘तल्लिंगसंज्ञितं साक्षातेजो माहेश्वरं परम्।
- तदेव मूलप्रकृतिर्माया च गगनात्मिका।।[2]
ब्रह्माण्डपिण्ड सप्तावरण प्रकृतिरूप योनि से आवृत- परिवेष्ठित - हैं। ‘शिवपुराण’ में लिंग शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार बतलायी गयी है-
- ‘‘भगवन्तं महादेवं शिवलिंगं प्रपूजयेत्।
- लेकप्रसविता सूर्यस्तच्चिह्नं प्रसवाद्भवेत्।।
- लिंगे प्रसूतिकर्तारं लिंगिनं पुरुषो यजेत्।
- लिंगार्थगमकं चिह्नं लिंगमित्यभिधीयते।।
- लिंगमर्थ हि पुरुषं शिवं गमयतीत्यदः।
- शिवशक्तयोश्च चिह्नस्य मेलनं लिगमुच्यते।।’’
अर्थात शिवशक्ति के चिह्न्न का सम्मेलन ही लिंग हैं। लिंग में विश्वप्रसूति-कर्ता की अर्चा करनी चाहिये। यह परमार्थ शिवतत्त्व का गमक, बोधक होने से भी लिंग कहलाता है। प्रणय भी भगवान का ज्ञापक होने से लिंग कहा गया है। पंचाक्षर उसका स्थूल रूप है-
- ‘‘तदेव लिंग प्रथमे प्रणवं सार्वकामिकम।
- सूक्ष्मप्रणवरूपं हि सूक्ष्मरूपन्तु निष्कलम्।।
- स्थूललिंग हि सकलं तत्पंचाक्षरमुच्यते।’’
माघ कृष्ण चतुर्दशी महाशिवरात्रि के दिन कोटिसूर्य समान परम तेजोमय शिवलिंग का प्रादुर्भाव हुआ है -
- ‘‘माघकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि।
- शिवलिंगतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभः।।’’
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