भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
श्रीसनकादि का कहना है कि “हे नाथ! यदि आपके श्रीचरणों में अलि (भौंरे) के समान मन आसक्त हो और आपके गुणगणों से यदि कर्णरन्ध्र निरन्तिर पूरित होता रहे, तब तो भले ही अपने कर्मों के अनुसार नरकों में जन्म हो तो भी कोई चिन्ता नहीं।” अतः भगवान के सम्बन्ध से तृष्णा और राग का भी अद्भुत महत्त्व हो जाता है। भगवान में मोह, भगवान में राग, उनके सम्मिलन की तृष्णा किसी परम सौभाग्यशाली को ही प्राप्त हो सकती है।
श्रीकृष्णप्रेमरसभक्तिभावित मति दुर्लभ है। यदि वह मिल सके तो उसे खरीदना ही जीवन का साफल्य है, परन्तु उसका मूल्य भी केवल लौल्य (व्याकुलता) है। वह भी करोड़ों जन्मों के संकल्पों से किसी सौभाग्यशाली को प्राप्त होता है। प्राणी को भगवान की प्राप्ति में अविद्या, लज्जा और अहंकार आदि ही व्यवधान हैं। अपने को भगवान से भिन्न समझकर उनसे अपने को छिपाने और आवृत रखने का प्रयास किया जाता है। वस्त्ररूप अविद्या के छिन जाने पर व्रजांगनाएँ अहंकार और लज्जा से अपने को छिपाना चाहती थीं, परन्तु सर्वव्यापक, सर्वप्रकाशक, सर्वसाक्षी, सर्वान्तरात्मा भगवान ने यह भी अनुचित समझा और सर्वथा निरावरण, निश्छल होने का अनुरोध किया। भगवान के संकल्प से व्रजांगनाओं ने वैसा ही किया। अत्यन्त निरावरण होकर शुद्ध भाव से दोनों हाथों से मूर्छान्जलि बन्धनपुरःसर प्रणाम किया। भगवान ने शुद्धभाव से प्रसन्न होकर अपना प्रसाद करके लज्जा आदि सभी आवरणों को लौटा दिया, परन्तु अब वे सब भगवत्प्रसाद हो गये। जीव की मोहिनी अविद्या भी भगवत्प्रसाद होकर वैष्णवी माया हो जाती है। भगवल्लीला में उपयोगी भेद का समर्थक होने से भक्तों में भगवान वैष्णवी माया का संचार करते हैं। जब श्रीनन्दरानी को अपने ललन श्रीकृष्ण के मुख में निखिलविश्व देखकर यह बोध हुआ कि “अरे! यह तो पूर्ण परब्रह्म परमात्मा हैं, मैं तो मोह में इन्हें पुत्र मान रहीं हूँ”, बस, वहीं भगवान ने देखा कि यह ऐश्वर्य ज्ञान तो लीला में बाधक होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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