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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
शिवलिंगोपासना-रहस्य
शिवब्रह्म का स्थूल आकार विराट ब्रह्माण्ड है, ब्रह्माण्ड आकार का ही शिवलिंग होता है। निर्गुण ब्रह्म का बोधक होने से यही ब्रह्माण्ड लिंग है। अथवा उकार से जलहरी, अकार से पिण्डी और मकार से त्रिगुणात्मक त्रिपुण्ड कहा गया है। अथवा निराकार के आकाशरूप अकार, ज्योति:- सतम्भाकार तथा ब्रह्माण्डाकार आदि सभी स्वरूपों में शक्तिसहित शिवतत्त्व का ही निवेश है। सर्वरूप, पूर्ण एवं निराकार का आकार अण्ड के आकार का ही होता है। मैदान में खडे होकर देखने से पृथ्वी पर टिका हुआ आकाश अर्द्धअण्डाकार ही मालूम होता है। पृथ्वी के ऊपर जैसे आकाश है, वैसे ही नीचे भी, दोनों को मिलाने से वह भी अण्डाकार ही होगा। आत्मा से आकाश की उत्पत्ति है, यही निराकार का ज्ञापक लिंग उसका स्थूल शरीर है। पंचतत्त्वात्मिका प्रकृति उसकी पीठिका है। आकाश भी अमूर्त्त और निराकार होने से विशेष रूप से तो प्रत्यक्ष होता नहीं, फिर भी वह कुछ है ऐसा ही निश्चय होता है। उसी का सूचक भावमय गोलाकार है। शिवब्रह्म निराकार होता है। उसी का सूचक भावमय गोलाकार है। शिवब्रह्म निराकार होता हुआ भी सब कुछ है, निर्विशेष ही सर्वविशेषरूप होता ही है। चिदाकाश में भी इसी तरह शिवलिंग की भावना है। इसी अण्डाकार रेखा से सक उत्पन्न होते हैं। यही किसी अंक के आगे आकर उसे दशगुना अधिक करता हैं। ज्योतिर्लिंग का स्वरूप इस तरह समझना चाहिय-
उसी से विद्युत पुरुष और फिर उससे निमेषादि काल-विभाग उत्पन्न हुए। वही विद्युत पुरुष ज्योतिर्लिंग हुआ। उसका पार आदि, अन्त, मध्य कहीं से किसी को नहीं मिला। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ऋ० 8।7।7
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