भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
कोई त्याग पतन का मूल और कोई परम कल्याण का मूल होता है। किसी व्यभिचारी (जीव) के लिये स्त्री का आर्य्यधर्म त्याग करना महापाप है, परन्तु परमात्मा श्रीकृष्ण के लिये आर्य्यधर्म का भी संन्यास युक्त ही है। साध्यप्राप्ति होने पर साधन का संन्यास स्वाभाविक ही है। काम, क्रोध और लोभ आदि से अपने कर्मों का संन्यास पाप है, परन्तु सर्वचेष्टा विवर्जित निर्विकल्पसमाधि द्वारा ब्रह्म साक्षात्कार के लिये सर्वकर्मों का संन्यास युक्त ही है। विवेकियों ने कर्मों को ही कर्म संन्यास द्वारा नैष्कर्म का मूल बतलाया है।
धर्म, राष्ट्र एवं शरणागत की रक्षा के लिये प्राणों का त्याग बड़े महत्त्व का है, किन्तु कंचन-कामिनी के लिये, चोरी-व्यभिचारादि द्वारा प्राणत्याग का महत्त्व नहीं है, अपितु महापाप का मूल है। ठीक ऐसे ही सर्वकर्म-समर्हणीय भगवान के लिये सर्वकर्मों का त्याग, संन्यास शब्द से आदरणीय होता है। अन्य लौकिक पदार्थों के लिये आर्य्यधर्म का त्याग महापाप है। दुस्त्यज दुर्व्यसन एवं पाशविकी चेष्टाओं को दूर करने के लिये दुस्त्यज धर्मनिष्ठा की अपेक्षा होती है, और फिर उस दुस्त्यज धर्मनिष्ठा के त्याग के लिये दुस्त्यज ब्रह्मनिष्ठा या भगवदनुराग की अपेक्षा होती है। श्रीव्रजांगनाओं का श्रीकृष्णप्रेम दुस्त्यज था। सर्वत्याग का मूल यही था, परन्तु इसके त्याग का कोई भी और कहीं भी साधन ही नहीं था। जैसे योगी-मुनि विषयों से मन को हटाकर श्रीकृष्ण में लगाना चाहते हैं, वैसे ही व्रजांगनाएँ, श्रीकृष्ण से मन हटाना चाहती हैं। जैसे ग्रहगृहीतात्मा ग्रह से अपने को मुक्त करना चाहता है, वैसे ही कृष्णग्रहगृहीतात्मा व्रजांगनाएँ श्रीकृष्ण से अपने आपको मुक्त करना चाहती हैं। जैसे मुमुक्षु विषयों में दोषानुसंधान करते हैं, वैसे ही वे श्रीकृष्ण में दोषानुसंधान करती हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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