भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
एतदर्थ उनका त्याग अभीष्ट होता है। त्याग के ही लिये कहीं-कहीं कर्मों की निन्दा भी की जाती हैः- “प्लवा ह्येतेऽदृढा यज्ञरूपाः”। यह एक सर्वसम्मत् नियम है कि किसी पदार्थ की स्तुति उसके ग्रहण के लिये और निन्दा उसके त्याग के लिये की जाती है। उच्छृंखलता और पाशविकता स्वाभाविकी है। श्रीतस्मार्त्तश्रृंखलानिबद्ध चेष्टा दुर्लभ है। रागप्राप्त द्रव्य क्रियादि की निन्दा द्वारा निषेध करके, स्वतः अप्राप्त धर्म की प्रशंसा पुरस्सर विधान किया जाता है। श्रीव्रजांगनाएँ पूर्ण स्वधर्मनिष्ठा द्वारा पाशविकी भावनाओं से अत्यन्त असंस्पृष्ट रहीं। स्वधर्मनिष्ठा उनकी इतनी दृढ़ थी कि जैसे दुर्व्यसनी को दुर्व्यसन दुस्त्यज होता है, वैसे ही उनकी धर्मनिष्ठा आर्यधर्म दुस्त्यज था। जिस समय श्रीकृष्ण ने अपने अमृतमय मुखचन्द्र पर वेणु को धारण करके उस सुमधुर अधरसुधा से पूरित कर बजाया, उस समय व्रजांगनाएँ अपने जातिधर्म, वर्णधर्म, आश्रमधर्म एवं कुलधर्म में लगी थीं। कोई गोदोहन कर रही थी, कोई पति शुश्रूपा में लगी थीं, तो कोई शिशुओं को पयःपान करा रही थीं। व्रजांगनाओं ने अपनी रुचि से कर्मों का त्याग नहीं किया, किन्तु श्रीकृष्णमुखचन्द्र निर्गत वेणुगीतपीयूष के सम्पर्क से श्रीव्रजांगनाओं के हृदयस्थ प्रेममहार्णत्र के उद्वेलित हो जाने पर वे अपने को सँभाल न सकीं। जैसे गंगा के तीव्र प्रवाह में पढ़कर शतधा बचने का प्रयत्न करने पर भी प्राणी को बहना ही पड़ता है, वैसे ही वेणुगीत समुद्बुद्ध प्रेमप्रवाह में व्रजांगनाएँ बह चलीं। शतधा बचने का प्रयत्न करने पर भी वे भमद्वृन्दारण्य धामवर्ती व्रजचन्द्र श्रीकृष्ण के पास पहुँच गयीं। जैसे ग्रहगृहीत प्राणी अपने वश में नहीं होता वैसे ही श्रीकृष्ण ग्रहगृहोतात्मा होकर वे अस्वतन्त्र हो गयीं, “निशम्य गीतं तदनंग्वर्धनं व्रजस्त्रियः कृष्णगृहीतमानसाः”। इससे विदित होता है कि व्रजांगनाओं की आर्य्यधर्मनिष्ठा कितनी अविचल यो। पाशविकी चेष्टा उनको वश में तो क्या, स्पर्श तक नहीं कर सकती थी, किन्तु लोकोत्तर श्रीकृष्णप्रेम ने ही, उन्हें स्वजन और आर्य्य धर्म त्याग द्वारा संन्यास के लिये बाध्य किया। जैसे कोई कर्मनिष्ठ कर्मों के महाफलभूत भगवत्-साक्षात्कार के लिये ही सर्वकर्मों का संन्यास करता है, वैसे ही सर्वधर्मों के महाफल श्रीकृष्णप्रेम के लिये ही व्रजांगनाओं ने सर्वधर्मों का संन्यास किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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