भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
स्वैरिणियों को आर्यधर्म से सम्बन्ध ही नहीं होता, तब वह उन्हें दुस्त्यज क्यों होगा? परन्तु यहाँ तो आर्यधर्म अत्यन्त दुस्त्यज था। तभी उसको त्यागकर श्रीकृष्ण के भजने का लोकोत्तर माहात्म्य है। आर्यपथ को सुरक्षित रखकर श्रीकृष्ण को भजने वालों से भी इनका माहात्म्य अधिक है। अतएव यद्यपि स्वकर्म से भगवान का आराधन करना प्रथम कोटि है- “स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।”
यहाँ ध्यान देने की बात है कि दुस्त्यज त्याग के कारण ही श्रीव्रजांगनाओं की दिव्य महिमा है। विशेषता यह है कि किसी को दुराचार, दुर्विचार एवं तभदावनाजन्य दुर्व्यसन दुस्त्यज होता है, परन्तु यहाँ तो आर्य्य-पथ ही दुस्त्यज है। आर्य्यपथ पर चलकर उच्छंखल पथ का त्याग किया जाता है, यह धर्मनिष्ठा की अद्भुत महिमा है कि आर्य्य-पथ दुस्त्यज हो जाय। वेश्याओं के लिये क्या आर्यमार्ग दुस्त्यज है? जिसने जिसका संस्पर्श तक न किया, वह उसके लिये दुस्त्यज कैसे हो सकता है? इसीलिये वेदों ने पहले पहल श्रौतस्मार्त्त कर्मानुष्ठान रूप आर्य मार्ग के आश्रयण द्वारा उच्छृंखल पथरूप स्वाभाविक काम कर्म ज्ञान के त्याग का आदेश किया है। जैसे किसी दुराचारी को दुराचार का दुर्व्यसन हो जाता है, फिर माता-पिता, गुरुजनों एवं शास्त्रों के शतशः निषेध से भी, उन दुर्व्यसनों से निवृत्ति कठिन हो जाती है। जो प्राणी माता-पिता, गुरुजनों के आदेशानुसार वेदादि सच्छास्त्रोक धर्मों का सेवन करने लगता है, फिर शनैः शनैः उसके उच्छृंखलता सम्बन्धी समस्त संस्कार छूट जाते हैं और सद्धर्मों के संस्कार सुस्थिर हो जाते हैं। यहाँ तक कि फिर उसे सद्धर्म का ही सद्व्यसन हो जाता है, और उसका भी छूटना कठिन हो जाता है। पहले पहल जब पाशविक कर्मों की प्रधानता रहती है, तब तक सत्कर्मों में प्रवृत्ति दुष्कर होती है। अतएव कर्मों का प्रशंसन करके उनका विधान किया जाता है, परन्तु सत्कर्मानुष्ठान द्वारा दुष्कर्मों का त्याग कर, जब सत्कर्मनिष्ठा के संस्कार दृढ़ हो जाते हैं, तब नैष्कर्म्यप्राप्ति के लिये या निदिध्यासनादि तत्परता सम्पादन के लिये, उनका त्याग कराना अभीष्ट है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भा.
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