भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
यह लीला अलौकिक एवं अप्राकृत है, यही बात प्रदर्शित करने के लिये इस श्लोक में श्रीकृष्ण के लिये भगवान और योगेश्वर इत्यादि विशेषण आये हैं। अर्थात भगवान व्रजकुमारिकाओं की शुद्ध भावना से की गयी आराधना से सन्तुष्ट होकर, उनकी कर्मसिद्धि के लिये पधारें हैं, गोपियों के नग्न अंग देखने के लिये नहीं। योगसिद्ध प्राणी भी प्रत्याहार द्वारा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेता है, फिर योगेश्वर तो सर्वज्ञता, सत्य संकल्पता आदि के स्वामी होते हैं, उनके मन में ऐसी वासनाओं का जागृत होना नितान्त असम्भव है। फिर महा-महायोगेश्वर जिनके पादपंकज का सेवन करते हैं वे योगेश्वरेश्वर भगवान श्रीकृष्ण अजात यौवन उन कुमारिकाओं का नग्न अंग देखने की ही रुचि से वहाँ गये, ऐसी दुर्भावना जिनके मन में उठे, उनसे अधिक हतभाग्य कौन हो सकता है? नन्ददास जी ने श्रीकृष्ण और व्रजांगनाओं के सम्बन्ध को इसी रूप में दिखलाया है। “तरंगन वारि ज्यों”। जैसे तरंग के प्रत्यंश में वारि भरपूर है‚ वैसे ही व्रजांगनाओं के अन्तरात्मा अन्तःकरण किंबहुना रोम-रोम में श्रीकृष्ण भरपूर है। परमानन्द रसामृत सिन्धु की तरंगस्थानीया व्रजांगनाओं की अपेक्षा भी परमानन्द रसामृतसारसर्वस्व श्रीकृष्ण की माधुर्याधिष्ठात्री महालक्ष्मी अधिक अन्तरंग हैं। जैसे अमृत स्वयं अभेद सम्बन्ध से अपनी मधुरिमा का अनुभव करे, उसी तरह निखिल रसामृतमूर्ति श्रीकृष्ण अपनी माधुर्याधिष्ठात्री महालक्ष्मी श्रीवृषभानुनन्दनी का अनुभव करते हैं। नायिका-नायक के रूपक से जीवात्मा-परमात्मा के सम्मिलन का वर्णन किया जाता है। अत्यन्त अभिन्न सदा सम्मिलित स्वरूप में भी वियोग एवं तज्जन्य व्याकुलता आदि की प्रतीति होती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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