भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
जो प्रसाद श्रीव्रजसीमान्नियों को प्राप्त हुआ है, वह लक्ष्मी को भी नहीं मिल सकता, फिर देवांगनाओं की तो बात ही क्या? श्रीदामोदर की अधरसुधा गोपिकाओं की ही है। “दामोदराधरसुधामपि गोपिकानाम्।।” इत्यादि वचनों से यही विदित होता है कि श्रीव्रजांगनाएँ अन्यों से असंस्पृष्ट भगवान की ही शुद्ध प्रेयसी थीं, फिर “यद्धामार्थसुहृत्प्रियात्मतनयत्राणाशयास्त्वत्कृते।” जिनका धाम, अर्थ, सुहृत, प्राण, अन्तरात्मा सब कुछ श्रीकृष्ण ही के लिये था, वे श्रीकृष्ण से भिन्न को पति रूप से स्वीकार कैसे कर सकती थीं? वह रुक्मिणी की तरह यह दृढ़ प्रतिज्ञा कर सकती थीं, कि- “जह्यामसून् व्रतकृशान् शतजन्मभिः स्यात्।” अर्थात “हे नाथ! व्रत से कृश प्राणों को मैं छोड़ दूँगी”, फिर उनका अन्य सम्बन्ध कैसे सम्भव है? परन्तु यहाँ यह समाधान समझना चाहिये कि श्रुतार्थापत्ति प्रमाण द्वारा अर्थात श्रुत तत्तत् प्रमाण वचनों के अर्थ उपपादन करने के लिये यह मानना चाहिये कि भगवान की दिव्य लीला शक्ति से ही सबको वैसी प्रतीति मात्र हुई है। श्रीकृष्णसम्मिलन की आशा से ही ऐसी प्रतीति होने पर भी व्रजांगनाओं ने जीवन की रक्षा की। उनका अन्य पुरुषों के साथ सम्बन्ध नहीं हुआ, किन्तु उन्हीं के समान मायामीय अन्य अंगनाओं से ही उन पतियों का सम्बन्ध होता था। श्रीकृष्ण प्रेयसी व्रजांगना सदा ही असंस्पृष्ट रही थीं। जैसा कि कहा गया है-
यह भी उनकी उत्कण्ठा बढ़ाने के लिये एक लीला थी। जैसे निर्धन प्राणी धन पाकर बड़ा प्रसन्न होता है, उसके नष्ट होने पर उसकी चिन्ता में इतना तल्लीन होता है कि अन्य समस्त प्रपंच को भूल ही जाता है, वैसे ही इसमें वैचित्र्यसम्पादनार्थ ही व्यूढ़ा और कुमारी भेद थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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