भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
ऐसा वृन्दारण्यधाम है। कुछ लोग कहते हैं- मयूरपिच्छधारी प्रभु को देखकर जैसे अन्य समस्त प्राणी स्तब्ध हो गये वैसे मयूर क्यों नहीं हुए? उसे नृत्य कैसे सूझी? तो कहते हैं- मयूरों को श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द दामिनीपरिवेष्टित मन्द गजर्न करते हुए नवनील नीरज स्वरूप में ही प्रकट हुए। जैसे ‘मल्लानामशनि’ के वर्णन के अनुसार हर एक को अलग-अलग प्रभु दीेखे, वैसे ही यहाँ भी मयूरों के लिये मेघस्वरूप में प्रकट होने से उनको नाचना ही सूझा। एवं कोकिलाओं को सरस वसन्तस्वरूप की प्रभु में स्फूर्ति हुई। अथवा यह मयूरपिच्छधारी श्रीकृष्ण मयूर-प्रिय हैं। उनको देखकर मयूर ने नाचना आरम्भ किया और प्रार्थना की कि आप बजाओ और हम नाचें। कैसा सुन्दर दृश्य है। मनमोहन श्यामसुन्दर वेणुनाद करते हैं और मयूर नृत्य करते हैं। यही कहा- ‘वेणुमनु’। वेणु में गायन भी और वादन भी, तदनुकूल नृत्य हो रहा है और सब खग-मृगादि सभ्यवृन्द द्रष्टा-श्रोता स्तब्ध है। अब जिस प्रकार बजाने वाले वादक ने अगर ठीक बजाया, तो उस पर प्रसन्न होकर इनाम दिया जाता है, वैसे ही मयूर ने श्रीभगवान के वादन पर प्रसन्न होकर पिच्छ दिया और प्रभु ने भी बड़े आदर के साथ उसको अपने मस्तक पर धारण किया। अथवा पहिले तो मयूर ने दामिनीपरिवेष्टित नवनीलनीरद मानकर नृत्य आरम्भ किया। उसके नृत्य को देखकर भगवान ने वेणु-वादन आरम्भ किया तो पीछे भेद खुल गया। नवनीलनीरद में गम्भीरता, श्यामलता, तापापनोदकता, मनोहारिता इत्यादि जो गुण हैं वह तो सब प्रभु में ही हैं पर आखिर वह नीरद यह अमृतद, वह जलद, यहाँ प्रमानन्द की वर्षा। प्राकृत दामिनी से अनंतकोटिगुणित दीप्तिसम्पन्न पीताम्बर और वेणु वादन की अद्भुत मनोहारिता इत्यादि। प्राकृत नीरदों से जब उसे विशेष अतिशयिता का अनुभव होता तब मयूर भी स्तब्ध हो जाते हैं। इस पक्ष में पहले ‘मयूरेभ्यः अन्यानि’ ऐसा अर्थ किया। अब ‘अवरतानि अन्यसमस्ततत्त्वानि’ अवरते अन्ये रजस्तमसी अवरत उपरत है अन्य रज तम जिसमें। वह समस्त सत्त्व जिसमें रज और तम की सामस्त्येन निवृत्ति है ऐसा पूर्णरूपेण विकसित सत्त्व जहाँ है ऐसा श्रीवृन्दारण्यधाम ‘वृन्दावन’। ‘वृन्दावनं सखि भुवो वितनोति कीर्ति।’ कहते हैं, गोपालचूड़ामणि श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकंद के वेणुनाद के अनंतर जो मत्त मयूरों का नृत्य उससे प्रेक्ष्य जो अद्रिसानु उस पर सर्वप्राणि स्तब्ध हो गये। अर्थात ‘प्रेक्षामर्हन्तीति ते प्रेक्ष्याः।’ गोवर्धन के शिखर तो यों ही मनोहर थे, फिर प्रभु के सान्निध्य को प्राप्त होकर बड़े सुहावने बने थे। उनकी शोभा लोकोत्तर बढ़ी थी अथवा उस अवसर विशेष में प्रेक्ष्य हुए जब इन्द्र की पूजा रोककर गोवर्धन की पूजा करायी और सब भोग ‘शैलोऽस्मि’ कहते हुए स्वयं लिया। इसलिये कहा-"गोविन्दवेणुमनुमत्तमयूरनृत्यं पे्रक्ष्याद्रिसान्ववरतान्यसमस्तसत्त्वम्।।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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