भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
शिवलिंगोपासना-रहस्य
तम को वश में रखकर उसके अधिष्ठाता शिव ही सर्वकारण हैं। कार्यों को कारण का पता आद्यन्त नहीं लगता। यह कहा जा चुका है कि समस्त योनियों का समष्टिरूप प्रकृति है, वही शिव-लिंग का पीठ या जलहरी है। योनि में प्रतिष्ठात लिंग आनन्द प्रधान, आनन्दमय होता है। जैसे समस्त रूपों का आश्रय चक्षु, समस्त गन्धों का आश्रय एकायतन - घ्राण है, वैसे ही समस्त आनन्दों का एकायतन लिंग-योनिरूप उपस्थ है। अत एव, प्रकृति विशिष्ट दृक्रूप परमात्मा आनन्दमय कहलाता है। सुषुप्ति में भी उसी के अंश-भूत व्यष्टि आनन्दमय का उपलम्भ होता है। प्रिय, मोद, प्रमोद, आनन्द यह आनन्दमय के अवयव हैं, शुद्ध ब्रह्म इन सबका आधार है। जब अनन्तब्रह्माण्डोत्पादिनी प्रकृति समष्टि योनि है, तब अनन्त ब्रह्माण्डनायक परमात्मा ही समष्टि लिंग है और अनन्त ब्रह्माण्ड प्रपंच ही उनसे उत्पन्न सृष्टि है। इसीलिये परमप्रकाशमय, अखण्ड, अनन्त शिवतत्त्व ही वास्तविक लिंग है और वह परम प्रकृतिरूप योनि जलहरी में प्रतिष्ठित है। उसी की प्रतिकृति पाषाणमयी, घातुमयी जलहरी और लिंगरूप में बनायी जाती है। अदीर्घदर्शी अज्ञ प्राणी के लिये सांसारिक सुखों में सर्वाधिक सुख प्रियाप्रियतम परिष्वंग मैथुन में हैं। अतः उसके उदाहरण से भी श्रुतियों ने अनन्त, अखण्ड, परमानन्द ब्रह्म और प्रकृति के आनन्दमय स्वरूप को दिखलाया है। कहीं-कहीं जीवात्मा के परमात्मसंमिलन-सुख को इसी दृष्टान्त सुख से दिखलाया गया है-
जैसे प्रियतमा के परिरम्भण में कामुक को आन्दोद्रेक से आह्य, आभयन्तर विश्व विस्मृत होता है, वैसे ही जीव को परमात्मा के संमिलन में प्रंपच का विस्मरण होता है। श्रुतियों एवं पुराणों में आध्यात्मिक, आधिदैविक तत्त्वों का ही लौकिक भाषा में वर्णन किया जाता है, जिससे कभी-कभी अज्ञों को उसमें अश्लीलता झलकने लगती है। गोलोकधाम में एक पूर्णतम पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने अकेले अरमण के कारण अपने आपको दो रूप में प्रकट किया-एक श्याम तेज, दूसरा गौर तेज। |
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