विषय सूची
भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
मधुरिका ने कहा- “मैं इस शुक को ढूंढने आयी हूँ। कुसुमासव बीच में ही बोल उठे- “सखिं! यह तो हमारे श्रीश्यामसुंदर का शुक है। यदि तुम्हारी प्रियाजु का है तो इसे अपने पास बुलाओ। मधुरिका ने कहा- “सखे! क्या कोई भी इन श्रीलालजू के हाथ से छूटकर जा सकता है? यह तो भला एक प्रेमी जीव है। इनके हाथ में आते ही जड़ चेतन हो जाते और चेतन जड़ हो जाते हैं। इनके हाथ में आते ही जड़ वेणु सजीव हो जाता है। उनका यह रसमय प्रसंग चल ही रहा था कि इतने में ही श्रीयशोदा वहाँ आ गयीं और बोलीं - “सखि! लाला को अभी खेल लेने दे, फिर मैं इसे तुम्हारे ही घर तक पहुँचा दूँगी। इस तरह लोकापवादादि-भय से भीत श्रीश्यामाजू प्रच्छन्न कामुकता आदि के लोकोत्तर साधन शुक प्रेषणादि का रसवर्द्धनार्थ आश्रय लेती हैं, अस्तु, ऐसे विलक्षण गूढ़ संचारवती श्रीमती राधा तथा तत्प्रिय सखियों को प्रसन्न करने का भगवान को कोई उपाय नहीं सूझता। अतः वे श्रीललिता जी से पूछती हैं- “लोकापवाददलितां मम लम्भनेऽपि एतां कथ कथमहो परिसान्त्वयामि।।” हृदय से हृदय का कभी विप्रयोग नहीं होता, पर फिर भी भ्रम से ऐसा होता ही है, क्योंकि श्रीमद्भागवतादि में विप्रयुक्तों की अवस्था का दिग्दर्शन हुआ है। अन्यत्र भी “दावानलज्वालिवनी सहक्षाम” आदि से विप्रयुक्तों की लोकसिद्ध किसी भी सद्वस्तु में वस्त्वन्तर की प्रतीति होने के उदाहरण मिलते हैं। अस्तु, किसी को संयोग से किसी का वियोग से सान्त्वना दी जाती है। परन्तु इन्हें कैसे प्रसन्न करें, जो प्रत्येक दशा में दुःख का ही अनुभव करती हैं? सखी श्रीललिता कहती हैं- “महाराज! श्रीप्रियाजू को तो अंग (गोद) में विराजमान करके ही प्रसन्न करो, क्योंकि वे आपके अन्यान्य गुणगणों से सिवा मूर्च्छित होने के सुखी नहीं होतीं-
गोप-सुन्दरियों के भी ऐसे ही मिलते-जुलते भाव हैं। इसने उच्च गम्भीर भाववती, फिर आत्मरहित भी उन गोपबालाओं को प्रसन्न करने का उनके अनुकूल होने के सिवा भगवान के पास कोई भी अन्य साधन नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज