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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
अस्तु, दासी को प्रेयसी बनाया सो तो बनाया, पर यह भी नहीं सोचा कि ‘यह नायकों से घिरी है।’ इस रूप में तो यह हमारे हृदयों को टूक-टूक कर रही है। हाय, जिस पर हमारा अधिकार है, उसी को इसने अपने वश में कर लिया। यह तुलसी कल्याणी अर्थात भद्रा है। ‘विचरति भद्रा त्रिभुवनमध्ये।’ नाममात्र ही भद्रा है, वस्तुतः है यह भी अभद्रा ही। भरणी, भद्रा से लोग बचते हैं। हाँ, सम्प्रयोग में यह भद्रा कल्याणी अवश्य है।’ कुछ व्रजांगना कहती हैं- ‘सखि, जाने दो; यह तो भगवदीया है। उनकी रुचि के बिना यह हमें उनका पता न देगी, क्योंकि यह अतिप्रिया है। अतः चलो, इसकी सौतों से पूछें- वे इससे दुःखी होंगी, अवश्य पता देंगी।’ (मालत्यदर्शि नः कच्चित्) यहाँ एक साथ मालती आदि कई के नाम हैं। वस्तुतः अनन्त नामवाली दास्य भाववती ये सखी हैं। ‘प्रिय सखि! मालति, तुम जानती हो इधर से कहीं श्यामसुन्दर निकले हैं, तुमने देखा है?” मालती को प्रफुल्लित देखकर उसके मकरन्द गिरता देखकर व्रजांगना कल्पना करती हैं और उससे कहती हैं- ‘सखि! मालति! तुम्हें श्रीश्याम के दर्शन अवश्य हुए हैं तभी तो तुम्हारे विकसित सुमनों से सौमनस्य झलक रहा है। सखि! तुमने उन्हें देखा ही नहीं, किन्तु उनका स्पर्श तो तुम्हें अवश्य प्राप्त हुआ है, तभी तो यह तुम्हें मुकुलित्त भाव के बहाने रोमांच हो रहा है, क्योंकि श्रीश्याम के अंगसंग के बिना रोमांच हो नहीं सकता। अगर हो सकता है तो उनके स्पर्श से ही। यह अन्वयव्यतिरेक से ही दीख रहा है। इसके अतिरिक्त ये मकरन्दबिन्दु भी गिर रहे हैं। अरे, ये मकरन्दबिन्दु नहीं, ये तो स्पष्ट ही आनन्दाश्रु हैं। सखि! बस, अब हमसे मत छिपाओ, यह सब चमत्कार तो उन श्रीश्यामबिहारी के दर्शन आदि के बिना नहीं हो सकता।’ इससे व्रजांगनाओं को श्रीकृष्ण का स्मरण आ गया, वे बीच में उन्हें ही उपालम्भ देने लगीं- “का स्त्र्यंगते कलपदायतमूर्च्छितेन संमोहिताऽऽर्यचरितान्न चलेत्त्रिलोक्याम्।...”[1] (इसका विशेष व्याख्यान पीछे हुआ है।) ‘हे मोहन! आपके कलपदायत से, मधुर संगीतलहरी से, कौन देवी-दानवी तक, जड़-चेतन तक मोहित होकर आर्यधर्म से विचलित न हो जायेगी? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (भाग., स्कं. 10, अ0 29, श्लोक 4)
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