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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
अथवा-
हे तुलसि, हम लोग तो ऐसी हतभागिनी हैं कि हम पर श्रीश्यामसुन्दर सदा ‘अच्युत’ रहते हैं- कभी भी कृपा से, प्रेम से द्रवीभूत नहीं होते। आप बड़ी सौभाग्यशालिनी हो। अनुकम्पा करके हमे बतलाओ, आपने उन प्राणजीवन को इधर कहीं देखा है? अथवा ‘गोविन्दचरण’ में ‘चरण’ पद आदरार्थक है, जैसे-गुरुचरण, पितृचरण; इसके अनुसार-परम आदरणीय गोविन्द गोकुलेन्द्र जिसे प्रिय हैं वह तुलसी उनकी अतिप्रिया है। अतः कभी भी उनसे उसका वियोग नहीं है। अथवा- “गोभिः श्रुतिभिः विन्द्यते-प्राप्यते यः स गोविन्दः” अर्थात जो वेद के द्वारा प्राप्त किया जा सके वह हुआ गोविन्द, कहा भी है- “वेदान्तवेद्यचरणेन मयैव गीतम्....” अर्थात वेद-शास्त्र के महातात्पर्य का विषय ही अत्यन्त प्रिय है जिसे, ऐसी हे तुलसि! आपने यहाँ कहीं उन मनमोहन को देखा हो, बताओ। आपको उनसे बड़ा प्रेम है। देखो, अभी-अभी उन्होंने अपनी वनमाला में आपको नोंचकर लगाया है। अभी इधर गये हों, बता दो। यहाँ जिससे वे पूछ रही हैं, वह तो तुलसी का क्षुप है और यह यहाँ लगा है। इससे इस समय श्रीकृष्ण का कोई सम्बन्ध नहीं। व्रजांगना भी इस बात को जान रही हैं, तब उनकी यह सब प्रश्न-परम्परा श्रीचरणधृत तुलसी से होगी। परन्तु वह तो उन्हें दीखती ही नहीं; तब प्रश्न वे किससे कर रही थीं? ऐसे संशय पर यह समाधान समझना चाहिये कि जंगल में खड़ी तुलसी की सजातीय श्रीचरणधृत तुलसी से गोपांगनाओं ने प्रश्न किया। श्रीकृष्ण इधर से निकले तो उनके साथ वर्तमान तुलसी इस तुलसी से मिलती गयी इससे इस वनस्थ तुलसी को यह भी मालूम हो गया कि श्रीश्याम इधर पधारे हैं। अब वह गोपांगनाओं को उत्तर दे, न दे, यह बात दूसरी है। परन्तु इन दृष्टियों से प्रष्टव्यता उसमें अवश्य है। अब तुलसी से मानिनी गोपांगना पूछती हैं- ‘हे सखि, उन अतिप्रिय श्याम को तुमने इधर कहीं देखा हो बतलाओ। हाँ, वे अतिप्रिय हैं, हमारे जैसी परप्रेयसियों का अतिक्रमण करके आ गये हैं। वे तुम पर मुग्ध हैं, विभोर हैं। ऐसे मुग्ध कि संसार की समस्त वस्तुओं का, प्रिय वस्तुओं का, अतिलंघन उन्होंने कर डाला और मधुर मधुपमूर्ति बनकर तुम्हारे पास चले आये। सखि! तुमने उनके चित्त को खूब आकृष्ट किया।’ इस प्रकार यहाँ मानिनी उक्ति प्रसंग में ‘अतिप्रिय’ पद में एक ही समाज को भिन्नार्थक करके दो चमत्कारिक अर्थों की सृष्टि है- (अतिक्रान्ताः प्रियाः अस्मादृशोऽपि येन सः तथा अतिक्रान्तं प्रियं जगद्वस्तुमात्रं येन सः ‘फिर सखि! तुम कल्याणी हो, तुम्हारी जो पूजा करते हैं, उनका तुम कल्याण करती हो। हम भी पूजा करती हैं, कहो, ‘मनमोहन’ किधर गये हैं?’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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