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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
आप गोविन्द चरण प्रिया हो। जिन्हें श्रीचरण प्रिय होते हैं- उन्हें कभी वियोग नहीं होता। यही विशेषता है। यही दास्यभाव की महिमा है। श्रीमद्वल्लभाचार्य जी का कथन है- श्रीचरणरज से ही भक्त बनते हैं। अतः उनका श्रीभगवान से विश्लेष नहीं होता। यह उस रज में खास बात है। अत: कहा भी है-
कृपा करके श्रीभगवान ने लक्ष्मी को अपने वक्षःस्थल पर स्थान दिया। यह नायिका का परम सौभाग्य है। पर लक्ष्मी डरती रही। वह जानती थी-श्रीचरणाम्बुज रज के बिना वियोग हो जाता है। अतः इतना ऊँचा स्थान पाकर भी उसने चरणरज ही चाहा, इसके लिये उसने तपस्या की- “...यद्वान्छया श्रीर्ललनाचरत्तपः.।” पहले भी श्रीलक्ष्मी का ऊँचा ही स्थान था, ब्रह्मादि-स्तम्बपर्यन्त उसके अपांगमोक्ष की-जरा सा देख देनेभर की-कामना किया करते थे। इस पर भी उसे सन्तोष नहीं था। अपने कमलों के कोमल भवन को छोड़कर, श्रीभगवान के पाद-पंकजरज को ही उसने उत्तम आश्रय समझा-
इस प्रकार श्रीमनन्नारायण के विशाल वक्ष को-निःसपत्न स्थान को पाकर भी श्रीलक्ष्मी उनके सपत्न स्थान श्रीचरणों को ही चाहती रहीं। श्रीभगवान के चरणाविन्द की महिमा ही ऐसी है। उनके चरणों में विराजमान वनमाला के गुच्छ आदि से उत्थित, मकरन्द से मिश्रित वायु का झोंका सनकादि के नासा विवर में जाते ही उनके चित्त और तनु दोनों में क्षोभ उत्पन्न कर देता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (भाग., स्कं. 10, अ. 29, श्लोक 37)
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