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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
ऐसी स्थिति में भगवान अन्तर्हित क्यों हुए? ये सब व्रजांगनाओं के उक्ति-वैचित्र्य हैं। पहले एक नायिका की शिकायत थी, ‘वे चोर हैं, मनोरत्नमंजूषा को चुरा ले गये।’ अब मानवतियों की शिकायत है, ‘वे दर्पमान चुरा ले गये, हमारा सर्वस्व लूट ले गये, हाय! हम अब क्या करें? श्यामसुन्दर ने अपने ‘स्मित’ से हमारा मान चुरा लिया, हमें निर्धन बना दिया। अतः हम अपना मान खोजने जा रही हैं। बतलाओ, हे पुन्नाग! बतलाओ, वे कहाँ गये?” ‘अबला बालाओं! तुम उन्हें कैसे धरोगी?’ इस पर कहती हैं- “रामानुजो मानिनीनाम्” श्रीबलराम से हम जरा लज्जा करती हैं, वे तो उनके छोटै भाई हैं और छोटे होने से ही निर्बल। हम उन्हें बाहुलता से वेष्टित और नयनशर से विद्ध करके आँचल से बाँधकर रखेंगी। फिर वे निर्बल हैं, तभी तो भाग गये। यों इस प्रसंग में मुग्धा, मध्या, प्रगल्भा आदि नायिका भावापन्न गोपांगनाओं के भाव हैं। लोक में जब भावुक अपने को अभीष्टपूर्ति प्रसंग में समर्थ नहीं पाता, तब वह आश्रय लेता है महान् का, देव का। उसमें स्त्रीहृदय-मातृहृदय कोमल होता है, पर दुःख से सत्त्वर द्रुत होता है। भावुक शेखर श्रीगोस्वामी जी ने अपनी ‘विनय पत्रिका’ के 41 वें पद्य में ‘श्रीरघुनाथ जी मेरी सूध लें’ इसके लिये श्रीजनकनन्दिनी जी से प्रार्थना की है- ‘कबहुँक अंव, अवसर पाइ। मोरियौ सुधि द्याइबी, कुछ करुन कथा चलाइ।’ वस्तुतः श्रीश्यामसुन्दर कृष्ण तत्त्व का निर्गुण निराकार का सम्मिलन अधिगति शक्ति तत्त्व की आराधना भी ब्रह्मविद्या द्वारा ही होती है। ‘केनोपनिषत्’ में एक कथा है- इन्द्र, वायु, यम, वरुणादि देवों को गर्व हो गया। उसे दूर करने के लिये तेज-पुन्ज रूप में ‘ब्रह्म’ प्रकटा। उसे देवता नहीं पहिचान सके-‘यह कौन है?’ उसका पता लेने एक-एक देवता गये। अग्निदेव पहले उसकी परीक्षा लेने गये, पर जाज्वल्यमान उस तेजोराशि को देखकर बोलने की हिम्मत न पड़ी। तब उस तेजःपुन्ज यक्ष ने कहा, तुम कौन हो, तुम्हारा क्या सामर्थ्य है? अग्नि ने उत्तर दिया-‘मैं अग्नि हूँ। सबको क्षण भर में जला सकता हूँ।’ यक्ष ने उसके सामने एक तृणखण्ड रख दिया। कहा ‘इसको जला दो।’ बहुत जोर लगाने पर भी अग्नि उसे नहीं जला सका। लज्जित होकर लौट आया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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