भक्ति सुधा -करपात्री महाराज पृ. 1210

भक्ति सुधा -करपात्री महाराज

श्री रासपञ्चाध्यायी

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चलो सखि, ये नहीं बतलायेंगे।’ यों जब व्रजांगना निराश होती हैं तब उनसे असूया करती हैं। भाव यह है कि जिससे श्रीश्यामसुन्दर का पता मिले उसकी स्तुति है। जो श्रीकृष्ण तत्त्व को नहीं बतला सकते उनकी स्तुति ही क्या? एक मुग्धा अनभिज्ञा नायिका ने प्रश्न किया- ‘आखिर सखि! श्यामसुन्दर चले क्यों गये?’ इस पर एक ने उत्तर दिया-‘इसलिये कि अकेले श्रीघनश्याम को तुम अनेकों ने घेर लिया, इससे वे डरकर भाग गये।’ दूसरी कहने लगी- ‘अरे नहीं, वे तो परम बलवान् हैं,- “रामानुजो मानिनीनाम्...” श्रीबलराम के अनुज हैं, स्वयम् भी बलवान् फिर भाई का भी बल, कहीं उनसे कह दें तो एक मुशल-प्रहार में ही वारा-न्यारा हो जाये। इसलिये सखि, उन्हें हमसे कैसा डर? अतः यह बात नहीं, वस्तुतः वे हमारे मानापनोदनार्थ कहीं छिप गये हैं।’

यह रासलीला श्रीरासेश्वरी के मन को आमोदित करने के लिये हुई। उनकी यह इच्छा हुई कि ‘श्री गोपीजनवल्लभ आकर समस्त गोपियों के साथ कैसे विहार कर सकते हैं यह देखें। वैसे ही श्रीवृषभानुनन्दिनी के एक-एक अंग से अनेक-अनेक गोपांगनाओं का प्राकट्य हुआ है। अवान्तर प्रयोजन यह भी कि-श्रुतिरूपा, मुनिरूपा गोपियों को भी प्रसन्न किया जाये। उत्तम लीला तब बने, जब सब सख्यभावापन्न हों। परन्तु यहाँ सबमें समान भाव हो गया-‘हम भी श्याम से वेणी गुंथायेंगी, हम भी पादसंवाहन करायेंगी’ और होना चाहिये था यह भाव केवल एक श्रीराधाजू में ही।

श्रीश्यामसुन्दर तो अपनी अभिन्नात्मा एक श्रीवृषभानुलली के प्राकट्य पर ही रास कर सकते थे; उन्होंने एक उन्हें ही महत्त्व देकर उन्हें ही प्रसन्न करने के लिये रास चाहा था। पर जब सबमें समान भाव आ गया, तब वे भाग गये। “बह्वय सपत्न्य इव गेहपतिं लुनन्ति” वाली बात वे कैसे सहते? परन्तु इसका भी समाधान हुआ-अनन्त समुद्र तरंग महासमुद्र के परतन्त्र हैं। इसी आशय से श्रीभगवच्छंकरपाद ने भी कहा है- “सत्यपि भेदापगमे, नाथ! तवाहम्, न मामकीनस्त्वम्। सामुद्रो हि तरंगः क्वचन समुद्रो हि तारंगः।” भगवान श्रीकृष्णचन्द्र पूर्ण पुरुषोत्तम हैं, महानायक हैं; अनेक गोपियों से डरकर वे भाग नहीं सकते।

गोपांगना अनेक रहें, अनन्त रहें, कोई बात नहीं। परन्तु वहाँ जो मान, ईर्ष्या, असूया आदि की सृष्टि हो गयी, यही ठीक नहीं हुआ। भगवान वहाँ नहीं विराजते जहाँ ईर्ष्या आदि हों। यदि इन भावों से गोपांगना महारास सौख्यरसास्वाद में विघ्न हो गयीं, तो ये इनके मान दर्प आदि तो भगवान के एक स्मितमात्र से दूर हो जाते हैं। उन्हें श्रीशुकदेव जी ने कवि निबद्ध वक्तृप्रौढोक्ति द्वारा ‘दर्पहरस्मित’ कहा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भगवत्प्राप्ति 1
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3. इष्टदेव की उपासना 8
4. मानसी-आराधना 20
5. सगुणोपासना में सरलता 24
6. संकल्पबल 28
7. श्री शिवतत्व 48
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9. शिवलिंगोपासना-रहस्य 63
10. श्री विष्णु-तत्त्व 88
11. गायत्री-तत्त्व 97
12. श्री भगवती-तत्त्व 102
13. बुद्धावतार का प्रयोजन 178
14. गजेन्द्र-मुक्ति 182
15. शक्ति का स्वरूप 188
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18. गणपति तत्त्व 235
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20. निराकार से साकार 255
21. भगवदवतार का प्रयोजन 275
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25. अव्यभिचार भक्तियोग 352
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30. प्रेमतत्त्व 375
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33. प्रभुकृपा 396
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35. करुणालहरी 408
36. श्रीरामजन्म-रहस्य 411
37. श्री रामभद्र का ध्यान 415
38. श्रीकृष्ण-जन्म 422
39. भगवान का मंगलमय स्वरूप 428
40. विभीषण-शरणागति 450
41. श्रीकृष्ण बालक्रीड़ा 469
42. साक्षान्मन्मथमन्मथः 486
43. श्रीवृन्दावन में वर्षा और शरत 507
44. वेणुरव 512
45. किरातिनियों का स्मररोग 517
46. वेणुगीत 525
47. चीरहरण 691
48. वेदान्त-रससार 730
49. निर्गुण या सगुण? 781
50. व्रज-भूमि 797
51. सर्वसिद्धान्त-समन्वय 808
52. क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा? 839
53. श्रीरासलीलारहस्य 854
54. श्री रासपञ्चाध्यायी 1142

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