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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
“व्रजजनार्तिहन् वीर योषितां निजजनस्मयध्वंसनस्मितः’[1] जिनकी मधुर मनोहर मुस्कान अनन्त कन्दर्प के दर्प को दलित कर देती है, कामिनी के काम-मद का मर्दन कर देती हैं-वे “रामानुजो मानिनीनाम” मानिनी के मान का मर्दन करने के लिये इस अरण्य में क्यों घूम रहे हैं? कहो कुरवक! अरे, हम इतना अनुनय कर रही हैं और यह बोलता तक नहीं? सखि (कुत्सितो रवो यस्य सः, अथवा कुत्सितात् रवात् कं सुखं यस्य स कुरवकः) जिसे दूसरों के रोने से सुख मिले, यह तो वह है। हमारे रोने से यह प्रसन्न हो रहा है। देखो, फूल खिले हैं, सौरभ फैल रहा है। सच में यह भी निष्ठुर श्रीश्याम की तरह ही है, उन्हें भी हमारा रोना ही अच्छा लगता है। गोपियों! योगीन्द्र-मुनीन्द्र वन्दितपादारविन्द से तुम पादसंवाहन कराओ यह क्या उचित है? इसी तुम्हारे दर्प को दूर करने के लिये वे अन्तर्हित हो गये हैं। नहीं, यह काम तो ‘स्मित’ से ही चल जाता। पर वे तो हमारे रोने से खुश होते हैं, अतः अन्तर्हित हुए हैं। मृगयु (व्याध) हरिणियों को वीणावादन करके मोहित कर लेता है। फिर उन्हें जाल में फँसाकर उनके रोने से प्रसन्न होता है। हम हरिणाक्षियों को अपने कटाक्षशर से विद्ध और वंशीरव से मुग्ध करके अब रोती देखकर वे श्यामसुन्दर प्रसन्न हो रहे हैं। इस तरह वे भी कुत्सित रव से प्रसन्न होने वाले कुरवक ही हैं। आगे अशोक से पूछती हैं। पहले उसकी स्तुति करती हैं- सखि! यह बहुत सुन्दर वृक्ष है, इसके पास जाने से ही शोक मिट जाता है- ‘नास्ति शोको यस्य स अशोकः।’ वह है आत्मवित, क्योंकि - “तरति शोकमात्मवित।” आत्मा कौन है? श्रीकृष्ण, उनको जान लेने से सब शोक-मोह दूर हो जाते हैं- “तत्र को मोहः कः शोकः...।” अशोक के मिले बिना शोक मिटता नहीं। अशोक के संग से अशोक हो जाता है। अतः हे अशोक! हम तुमसे पूछती हैं, बतलाओ, वे चितचोर मोहन कहाँ गये? जैसे चन्दन अपने पास के वृक्षों को चन्दन बना देता है- सुगन्धित बना देता है, वैसे ही तुम्हारे पास आयी हमको श्याम का पता देकर अशोक बनाओ, बड़ी कृपा होगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (भाग 10, 31, 6)
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