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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
अच्छा व्रजवनिताओं, यह तो बताओ, तुमने उनमें विश्वास कैसे कर लिया? विश्वास न करने का कोई कारण नहीं था, क्योंकि हम जिनके राज में रहती हैं, वे उनके पुत्र हैं-‘नन्दसूनु’ हैं। हम क्या जानती थीं कि ये पालक के बालक ही हमारे घालक निकल पड़ेंगे। अथवा “नन्दस्य-सर्वानन्दहेतोरयं सूनुः” हम तो समझती थीं। जगदानन्दकारक नन्द के ये सुपुत्र हैं। अत: हमने उन पर विश्वास किया। हन्त कष्टम्! हम विश्वास से ठगी गयीं। वृक्षो, तुम बताओ, तुमने उन्हें किसी तरफ जाते देखा है? इस प्रकार व्रजांगना श्रीकृष्ण के विरह में विह्वल हुई उनका अन्वेषण कर रही हैं और संहत होकर गान करती हुई उन्हें खोजती हैं। फिर-फिर अनुसन्धान होने से प्लक्षादि से पूछती हैं- हमारे चितचोर को बताओ। वह प्रेम, हास और अवलोकन से हमारे मन को धैर्य, लज्जा, विवेक, विज्ञान की मंजूषा को हर ले गये हैं। प्रेम, हास और अवलोकन से यहाँ सात्त्विक, राजस और तामस भाव बतलाये। प्रथम वस्तुज्ञान अवलोकन, फिर तत्प्राप्ति के लिये व्याकुलता, इसके बाद स्नेहासक्ति, मूर्छा हुई। यह बात अन्यत्र भी कही गयी है- “अदर्शने दर्शनमात्रकामा दृष्ट्वा परिष्वंग” अर्थात् जब तक प्राणप्रिय का दर्शन नहीं मिला तब तक तो दर्शन की केवल उत्कट उत्कण्ठा रही। फिर इसके पूरा होते ही आलिंगन की अभिलाषा जाग उठी। इसके बाद एक विचित्र आसक्ति, विभोरता ने वश में कर लिया। फलतः अब वह उनमें मिल जाना चाहती है और उन्हें अपने में मिला लेना चाहती है दोनों एकमेक हो जाना चाहते हैं। यद्यपि ये श्रृंगार के भाव हैं- रसीले भाव हैं। पर यह लौकिक श्रृंगार से ऊँची वस्तु है। साथ ही इस विषय में श्रीभरतादि नाट्याचार्यों की सम्मति है कि ऐसे समस्त श्रृंगार के उदात्त भाव, भेद, प्राकृत नायक-नायिकादि में समन्वित नहीं हो सकते, यदि हो सकते हैं तो केवल रसिकशेखर श्रीराधाकृष्ण में ही, उनके प्रेम-सुधासिन्धु के तो एक बिन्दु में ही ये सब समा जायेंगे। इन्हीं के प्रसंग में कहा गया है- “आशास्महे विग्रहयोरभेदम्” दोनों एक दूसरे के साथ अभेद ऐक्य चाहते हैं। परन्तु ये सब भाव अन्तरंगा आह्लादिनी शक्ति और श्रीश्यामसुन्दर में ही है। अस्तु, प्रकृत में अभिप्राय यही है कि इस प्रकार से दर्शन सात्त्विक है और उससे ज्ञान उत्पन्न होता है- “सत्त्वात् संजायते ज्ञानम्” इसके अनन्तर मिलने की उत्कण्ठा, फिर तज्जनित गाढ़ आसक्ति-अभिनिवेश होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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